स्वीकार नहीं, इन्कार नहीं / द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी
अनुनय और विनय तो सारी
है मुझको स्वीकार तुम्हारी;
किंतु प्रणय का अभिनय मुझको
किसी तरह स्वीकार नहीं है।
गर मिलना चाहो, मुझ से तो
आओ बन कर राधा भोली,
तभी सूर के बाल कृष्ण सँग
खेल सकोगी मिलकर होली।
लुका-छिपी की क्रीड़ाएँ तो
हैं मुझको स्वीकार तुम्हारी;
पर लुक-छिप कर मोहक चितवन
किसी तरह स्वीकार नहीं है॥1॥
मन तो है मेरा राजा, पर
जीवन बनवासी हर पल है;
भोले तन-मन वाले बन में
पर्णकुटी ही राजमहल है।
उस पर आने की भी इच्छा
है मुझको स्वीकार तुम्हारी;
लेकिन शूर्पणखा बन आना
कसी तरह स्वीकार नहीं है॥2॥
माना जीवन रंगभूमि भी
है रण-भूमि नहीं वह खाली;
पर इसका यह अर्थ नहीं
रण-भेरी में गाओ कव्वाली।
हार-जीत के लिए नाटकी
सहज क्रिया स्वीकार तुम्हारी;
किंतु डिगाने शिव को बनना
कामदेव स्वीकार नहीं है॥3॥
अगर किया यह पागलपन तो
भस्म तुम्हें करना ही होगा;
शिव-सुदरं की रक्षा में
नेत्र तीसरा खुलना होगा।
हाँ, सागर के मंथन पर जो
रही अहं भूमिका तुम्हारी
उस मंगलमय रूप मोहिनी
से मुझको इन्कार नहीं है॥4॥