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हँसता तो हूँ, रोता कब हूँ? / रामगोपाल 'रुद्र'
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हँसता ही हूँ! रोता कब हूँ?
पीड़ा जो शूल चुभाती है,
मुझसे कुछ रस ही पाती है;
मेरे जादू से जड़ में भी
जीवन की लाली आती है;
खुद से जो भी हो रंज मुझे,
जग से नाखुश होता कब हूँ?
तुम जो पूनों बन आती हो,
क्यों मेरी लाज लुटाती हो!
इन कोरे काँच-कटोरों में
क्या-क्या तूफान उठाती हो!
यों मैं, अपने भरसक, अपना
खारा धन भी खोता कब हूँ?
आँखों में लाल जँभाई है,
पीते ही रत बिताई है!
तलछट वाले प्याले धोने
ऊषा पनघट पर आई है!
तारों के सँग मैं भी निशि-भर
जगता ही हूँ! सोता कब हूँ?