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हत्यारी सदी में जीवन की खोज (कविता) / मुकेश निर्विकार

वह सोंप रही है मनुष्य को
जिंदगी और मोंत के
साजो-सामान एक साथ

हर रोज अनगिनत जनमते हैं
हर रोज अनगिनत मरते हैं
जिंदगी और मौत के बीच भी
हर रोज अनगिनत कलपते हैं

मगर अपनी पूरी भागदौड़
और रफ्तार के बावजूद भी
रोती किलकारी को
किसी हास्य में नहीं बादल पा रही है
हमारी सदी!

युवक जीवन से निराश
अपने भरपूर यौवन में
मृत्यु के आगमन की बात जोहते हैं
वृद्ध पुराने समय की यादों में
अपना गत यौवन खोजते हैं

निरंतर हांक रही है यह सदी
इस भीड़ के सैलाब को

निराशा और नर्क के गर्क में
और जिंदा लोगों के बीच से
जिंदगी कभी की गुम हो चुकी है।

ये सभी लोग उसी की खोज में
दौड़ रहे हैं बेतहाशा