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हदे निगाह से आगे भी जो नुमाया है / अश्वनी शर्मा
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हदे निगाह से आगे भी जो नुमाया है
मेरा वजूद है या सिर्फ एक साया है।
मैं तो हर भीड़ में अकेला हूं
मुझ को महफिल में क्यों बुलाया है।
अब ये सिक्कों से तौलना कैसा
मैंने गैरत को कब भुनाया है।
लज से खेलना फकीरी है
कब फकीरों ने घर बसाया है।
ज़िन्दगी का हिसाब कर देखा
सिर्फ रोटी में सब गंवाया है।
उम्र भर हादसों को झेला है
हौसला ज़ब्त से ही पाया है।
जब भी ज़ेहन सवाल करता है
जवाब-ए-पुर-सुकूं न पाया है।