भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
हमको अपनी तरह बना देना / ध्रुव गुप्त
Kavita Kosh से
हमको अपनी तरह बना देना
श़क्ल थोड़ा मगर ज़ुदा देना
खोल आया हूं सारे दरवाज़े
आज हर सिम्त से हवा देना
ख़ुद को हमने सज़ा सुनाई है
आप इल्ज़ाम बस लगा देना
रूह छू लूं तुम्हे पता न चले
इतना चुपके से रास्ता देना
रात है, चाँद है, हवा है अभी
हमको आवाज़ तो लगा देना
ज़िंदगी भर तुम्हे बुरा न लगे
इस सलीके से सब भुला देना
पहले तिनका सहेज़ना सीखो
आशियां फिर कभी जला देना
दिन है बाकी अभी तो सोने दो
रात गहराए तो जगा देना