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हमलावर / शरद कोकास
Kavita Kosh से
हमलावरों की कोई जात नहीं होती थी
बस धर्म होता था
ईमान नहीं होता था
चूल्हे की आग से लेकर
लड़कियाँ तक उठा ले जाने की
बदतमीज़ियाँ उन्होंने कीं
उनके घोड़ों की टापों से
कुचली गई रुलाइयाँ
विध्वंस के स्वर्ग की कल्पना
उनके दिमागों की उपज थी
उनके अट्टहास चट्टानों से टकराकर लौट आते थे
उनके नेजों पर लगा लहू
सूख भी नहीं पाता था और वे
बस्तियाँ दौंदने निकल जाते थे
हर रात रोटियों के साथ
नमक-मिर्च की तरह
हत्या का पाप लगाकर
वे हज़म कर जाते थे
मजे़ की बात यह कि वे
इंसानों का शिकार करते थे
लेकिन उनका गोश्त नहीं खाते थे
पीढ़ियों तक चलते रहे
हमलावरों के किस्से
और लुप्त हो गये
अब हमलावर उस तरह नहीं आते।
-1997