हमसफीराने-चमन मिले पर तरो-ताजगी ना मिली / कबीर शुक्ला
हमसफ़ीराने-चमन मिले पर तरो-ताज़गी न मिली।
लक़ा-ए-नाज़ तो मिला पर वह दीवानगी न मिली।
अहले-दिल अहले-मशाफ़ात मिले हमको सदहा,
उस ख़ुशखिराम आली इंसान-सी सादगी न मिली।
गेसू-ए-शबगूँ दीदनी हुस्नो-शबाब मिले लेकिन,
जिस्म-ए-जानाँ में फिर कवँल-सी तुर्फगी न मिली।
उफ़क़ चूमते महल-दो-महले कोठे-अटारियाँ देखा,
ख़ल्क-ए-तामीर में लेकिन वह आरास्तगी न मिली।
जुर्आ-जुर्आ जी लिया फिराक़े-हयाते-मरमरी में,
कश्मकशे-मर्गे-बेअमाँ मिली पर ज़िन्दगी न मिली।
किया मुहब्बत भी औ इकरार-ए-गुनाहे-इश्क भी,
इश्के-सितमगर में लेकोनकोई उफ़्तादगी न मिली।
इश्तेआरे तशबीहो से भरी बैते-नज़्म थी लेकिन,
नवा-ए-शायर में वह सुकूँ-ओ-आसूदगी न मिली।
हमनवा हमसफर शादकामे-हयात मिले लेकिन,
मकाने-कल्ब को ग़मगुस्सार हमसायगी न मिली।
छलावा दिखावा फरेब चप्पे-चप्पे दिखा 'कबीर' ,
खाकदाँ में वासफा़ फिर आदाबे-बंदगी न मिली।