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हमारे दर्द की जानिब इशारा करती हैं / 'शहपर' रसूल
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हमारे दर्द की जानिब इशारा करती हैं
फ़क़त कहानियाँ हम को गवारा करती हैं
ये सादगी ये नजाबत जो ऐब हैं मेरे
सुना था इन पे तो नस्लें गुज़ारा करती हैं
ख़ुद अपने सामने डट जाती हैं जो शख़्सियतें
वो जीतती हैं किसी से न हारा करती हैं
शरीफ़ लोग कि जैसे सुकूत-ए-आब-ए-रवाँ
कुछ ऐ मौजें मगर सर उभारा करती हैं
बदल गए हैं इरादे तो हसरतों में मगर
कुछ आरज़ूएँ अभी इस्तिख़ारा करती हैं
सितारे उन की चमक में समाना चाहते हैं
मगर वो आँखें फ़लक को सितारा करती हैं
बजा हैं अपने मसाइल बजा हैं अपनी हुदूद
कहीं किनारों से लहरें किनारा करती हैं
ज़बान-ए-शहर तो पैबंद-ए-ख़ाक-ए-जहल हुई
मगर वो महफ़िलें अब भी पुकारा करती हैं