हमारे सिम्त मुख़ालिफ़ हवा जो चलने लगी / सिया सचदेव

हमारे सिम्त मुख़ालिफ़ हवा जो चलने लगी
तमाम अहल ए जहाँ की नज़र बदलने लगी

जो ग़मगुसार थे अब ताजिरों से लगते है
हवा कुछ ऐसी सियासत की आज चलने लगी

भरोसा ख़ुद पे बहुत था की तन्हा जी लेंगे
कमी किसी की मगर आज दिल को खलने लगी

इसी की देर थी बस माँ दुआएँ दे मुझ को
फिर उसके बाद बला मेरे सर से टलने लगी

ज़माना उसको समझने लगा है अब शायद
दिलों की बात जो मेरी ग़ज़ल में ढ़लने लगी

सिया ज़माने के रुख़ को कभी समझ न सकी
लगी जो वक़्त की ठोकर तो वह संभलने लगी

इस पृष्ठ को बेहतर बनाने में मदद करें!

Keep track of this page and all changes to it.