हम अँधेरों में दिये बन जाएँगे / आनन्द बल्लभ 'अमिय'
हम अँधेरों में दिये बन जाएँगे।
घोर रातों को जगाकर, रात भर दुनियाँ सुलाई।
हर पखेरु को हमीं ने, थाप दे लोरी सुनाई।
हम सुबह तक सूर्य का पीछा किये थे।
विष भरे सौ-सौ घड़े हमने पिये थे।
पर हमारी चेतना के द्वार अब भी हैं खुले, हम-
हर विपद के सामने तन जाएँगे।
हम अँधेरों में दिये बन जाएँगे।
बचपन सिसकता जब कोई हमसे मिला है।
मोगरे के फूल-सा तब-तब खिला है।
निज अधर का जल समर्पित कर गये हम।
पर-खुशी में ही खुशी से मर गये हम।
हाँ हमारे पाँव हैं काटों छिले, हम-
हर कुपथ के सामने ठन जाएँगे।
हम अँधेरों में दिये बन जाएँगे।
हम नहीं काँपे किसी संशय, बुराई और छल में।
हम नहीं हारे कभी अतिशय कठिनता और बल में।
है दु: खों से प्रीत अपनी और निंदा है सहेली।
हम भले लघुदीप हैं सुलझी, सरल अपनी पहेली।
हाँ हमें हर युग कहेगा दिलजले, हम-
हर कुमति के सामने तन जाएँगे।
हम अँधेरों में दिये बन जाएँगे।