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हम क्या मिले के फ़ासले बढ़ते चले गए / अज़ीज़ आज़ाद

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हम क्या मिले के फ़ासले बढ़ते चले गए
आकर क़रीब दूर क्यूँ हटते चले गए

रुक कर हर एक मोड़ सोचा के कुछ कहें
नज़रें मिलीं तो सूरतें तकते चले गए

जैसे वो हम नहीं कोई साये हों अजनबी
जो बेख़ुदी में यूँ ही लिपटते चले गए

मिलते थे चाहतों का समन्दर लिए हुए
क्यूँ अपने दायरों में सिमटते चले गए

ये प्यार है के प्यार का अन्धा जुनून है
जब-जब मिले निगाहों से गिरते चले गए

अब भी वही तलाशे-मुहब्बत है ऐ ‘अज़ीज़’
हर बार किस ख़याल से मिलते चले गए