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हम क्यों न सबको ठीक तरज़ू पे तोलते / शेरजंग गर्ग
Kavita Kosh से
हम क्यों न सबको ठीक तराज़ू पे तोलते?
फिर बोलते तो किसके समर्थन में बोलते?
हमको तलाश थी, कहीं दो घूँट जल मिले,
फिरते हैं लोग ज़हर, शहर-भर में घोलते।
चेहरे लगे हुए हैं एक शक्ल पर कई,
नक़लों की साँठ-गाँठ के हम भेद खोलते।
पहुँचे हैं लोग-बाग कई मंज़िलो के पार,
हम दिल में बाग़-बाग़ हैं राहें टटोलते।