भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

हम क्यों न सबको ठीक तरज़ू पे तोलते / शेरजंग गर्ग

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

हम क्यों न सबको ठीक तराज़ू पे तोलते?
फिर बोलते तो किसके समर्थन में बोलते?

हमको तलाश थी, कहीं दो घूँट जल मिले,
फिरते हैं लोग ज़हर, शहर-भर में घोलते।

चेहरे लगे हुए हैं एक शक्ल पर कई,
नक़लों की साँठ-गाँठ के हम भेद खोलते।

पहुँचे हैं लोग-बाग कई मंज़िलो के पार,
हम दिल में बाग़-बाग़ हैं राहें टटोलते।