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हम खरे हैं खरे ही रहेंगे सदा / आनन्द बल्लभ 'अमिय'

हम अनाड़ी निपट्टे अनाड़ी हुए,
हाँ कुशलता तुम्हारी कहानी रही।

इक अबूझी पहेली हमें मानकर,
छल रहे हो हमारी नियति को सखे।
क्यों हमारी परीक्षा ही होती रहे,
कौन जाने यहाँ काल गति को सखे?

आज तुम स्वर्ण प्रासाद आसन रमे
जग विदित रीति कब खानदानी रही?

भिन्नता क्या कहें कौन तुम कौन हम?
हम निरा व्यर्थ हैं तुम निरा बुद्ध हो।
शुचि, विमलता कथन क्या कहें अब अहो!
हम अपावन उजड़ तुम निरा शुद्ध हो।

हम महज दो पगों में खड़े तापसी
बस यही बात निज स्वाभिमानी रही।

कर्म को पूजने से मिली सांत्वना,
बाँचते हम रहे सत्य के श्लोक फिर।
इस भुवन में सदा सत्यराशी अटल,
क्यों हमें हो रहा हर कदम शोक फिर?

हम खरे हैं खरे ही रहेंगे सदा
ध्यान सुन लो कथन यह जुबानी रही।