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हम जोहते रहते / लक्ष्मीकान्त मुकुल
Kavita Kosh से
खुरदरे दिन थे मेले में घूमने के
रात अपलक नींदे बुझा लेती अनमने
मेथी के भूंजे और सोंठ के स्वाद से
कट जाती थी दोपहरी बेरोक-टोक
पांव भर जाते अजवाईन के मेड़ों पर घूमते वक्त
रहट के पानी से चुल्लू भर बुझा आते
सदियों की तपती प्यासें
खा लेते प्याज, मिर्चा और दो टुकी रोटी
हंसते गाते बंध जाते बैलों की जोत में
मैना की नजरों-सा ताका करते
आकाशबत्ती से निकलती किरणें
सुना करते ग्वाला मां की कराहें
आटा पीसती औरतों के गीतों में डूबते रहते
हम जोहते रहते
सूखे कद्दू के टुकड़े पर दीया-बाती करती
बचपन की मां की सूजती आंखें
खोजते-खोजते थक जाया करते
गांव की पथरीली खोरियों में
धूलों में लोटती कोई पनखोजी चिरैया।