भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
हम नदी होते / सुनो तथागत / कुमार रवींद्र
Kavita Kosh से
हम नदी होते
तो बहते सिंधु तक
दूर तक फैले वनों से
हम गुज़रते
पर्वतों की गोद में
चढ़ते-उतरते
देखते हम नीर सूरज को उचक
पास से पगडंडियों के
या निकलते
हमें मिलते कभी
रेगिस्तान जलते
हम बुझाते प्यास की उनकी कसक
वक्त की देते गवाही
धूप बनकर
उन्हें भी हम तारते
जो रहे बंजर
हम सभी को बाँटते अपनी पुलक