हम पत्थर की क्यूं ना हुई? / वाज़दा ख़ान
बादलों के साथ सफर करते सूरज
रौशनी भरी थी आंखों में
रौशनी थी कि चुभ रही थी
पानी बनी जा रही थी आंखों में
गूंज रहा था कोई नाद
हम शर्मिंदा हैं...
कि हम पत्थर की क्यूं ना हुई
बिना श्राप के भी.
क्यूं भर दिए तमाम जज्बात, चोट
और खून के कतरे जिस्म में
क्यूं रची हमारे भीतर कायनात
हम शर्मिंदा हैं...
कि हम पत्थर की क्यूं ना हुई
क्यूं हम मेकअप से, लिपिस्टिक से
रंगी-पुती हैं, क्यूं हम तंग कपड़े पहनती हैं
क्यूं हम दिन-रातों में, घरों में, बाहर
चलने का दु:साहस करती हैं
हम शर्मिंदा हैं...
कि हम पत्थर की क्यूं ना हुई
हम जिस्म बनी, माल बनी, सौदा बनी
समझौता बनी, जायदाद बनी
आन-बान-शान बनी
हम शर्मिंदा हैं...
कि हम पत्थर की क्यूं ना हुई
हम घूंघट निकालती हैं
दुपट्टों से सिर ढकती हैं
पूरी आस्तीन की कमीज पहनती हैं
तुम्हारी हर ज्यादतियों को
खुद में जज्ब करती हैं
हम शर्मिंदा हैं...
कि हम पत्थर की क्यूं ना हुई
हम अकेले आसमान में नहीं उड़ना चाहती
हम उड़ना चाहती हैं तो ये चाहत भी
पालती हैं कि तुम साथ उड़ो
क्या हम शर्मिंदा हों अपनी चाहत पर
या कि इस सोच पर
कि इससे पहले हम-
पत्थर की क्यूं ना हुई
या खुदा तूने हमें क्यूं बनाया
गर बनाया भी तो इस जहान में भेजा क्यूं
तमाम संवेदनाओं में रंगकर
हम शर्मिंदा हैं...
कि हम पत्थर की क्यूं ना हुई
हम अपने लड़की होने का शोक मनाएं
कॉन्फेशन करें, क्या करें हम
लड़की होना गर कुसूर है हमारा
तो सीता, मरियम
आयशा को भूलकर
हम शर्मिंदा हैं...
कि हम पत्थर की क्यूं ना हुई
एक ऐसी कविता
जिसमें दर्द है / दु:ख है / आंसू है
पीड़ा है / आधी सदी है
मैं शर्मिंदा हूं...
लिखने से पहले
कि मैं पत्थर की क्यूं ना हुई.
(ये कविता दिल्ली गैंगरेप पीड़ित लड़की को समर्पित...जो आसमान का कोई तारा बन गई)