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हम परावलम्बी हैं / रामकुमार कृषक
Kavita Kosh से
हम परावलम्बी हैं
बौने हैं
कैसे ऊँचाइयाँ चढ़ें !
केयरऑफ़
दिनचर्या जीवन की
अपना घर - घोंसला नहीं
अनासक्ति - उद्घोषण
छल होगा
छल का ही हौसला नहीं,
हम पुराणपन्थी हैं
पोंगे हैं
कैसे सिर क्रान्तियाँ मढ़ें !
पदारूढ़
उत्कोची अनुशंसा
अपनी हर चाह सिरफिरी
निजताएँ अभिशापित
लगती हैं
आशीषें गालियाँ निरी,
हम विलोम सुख के हैं
दुख के हैं
कैसे ख़ुशफ़हमियाँ गढ़ें !
–
21 नवम्बर 1975