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हरकारे चले आए / यतींद्रनाथ राही
Kavita Kosh से
न तुम आए
न भेजी ही कभी पाती
हमारे घर
बजाते ढोल जाने क्यों
ये हरकारे चले आए
गरजते हैं, बरसते हैं
मचाते कीच आँगन में
नहीं धीरज बचा है अब
छतों में और छादन में
बची जो आबरू
लेने,
ये बजमारे चले आए!
चटकते बन्ध चोली के
ढलकता गाल पर काजल
कभी चूड़ी सुबकती है
बिलखती है कभी पायल
तरसते प्राण पर
ये तीर
अनियारे चले आए।
मरम
तुमने नहीं जाना
दरद की इन किताबों का
करोगे जानकर भी क्या
भला उलझे हिसाबों का
भरे गठरी
अँधेरों की
ये भिनसारे चले आए।