(राग पूरिया-ताल रूपक)
हरि सँग समर रत बृषकेञ्तु।
भक्त-बत्सल भक्त बानासुर बचावन हेतु॥
भुजग-भूषन, सूल भीषन कोप करि कर धार।
चक्रञ्धर हरि संग जूझत, हृदय अतिसय प्यार॥
अस्त्र अमित निवारि हरि छाँयो जँभाई बान।
हर जँभाई लैन लागे भूलि समर महान॥
कुञ्पित बानासुर कियो तब अति भयानक जुद्ध।
हारि अंतहि, बान याही उषा सँग अनिरुद्ध॥