हरेक रंगों में दिखती हो तुम / लक्ष्मीकान्त मुकुल
मदार के उजले फूलों की तरह
तुम आई हो कूड़ेदान भरे मेरे इस जीवन में
तितलियों, भौरों जैसा उमड़ता
सूंघता रहता हूँ तुम्हारी त्वचा से उठती गंध
तुम्हारे स्पर्श से उभरती चाहतों की कोमलता
तुम्हारी पनीली आंखों में छाया पोखरे का फैलाव
तुम्हारी आवाज की गूंज में चूते हैं मेरे अंदर के महुए
जब भी बहती है अप्रैल की सुबह में धीमी हवा
डुलती है चांदनी की हरी पत्तियाँ अपने धवल फूलों के साथ
मचलता हूँ घड़ी दो घड़ी के लिए भी
बनी रहे हमारी सन्नीकटता
बभनी पहाड़ी के माथे पर उगा
संजीवनी बूटी हूँ मैं
जो तप रहा हूँ मई के जलते अंगारों से
जीवित हूँ यह उम्मीद लगाए
कि तुम आओगी बारिश की मेघ-मालाओं के साथ बस एक छुअन से हरा हो जाएंगे
झुलस चुके मेरी देह के रोवें
चूल्हे की राख—सा नीला पड़ गया है मेरे मन का आकाश
तभी तुम झम से आती हो
जलकुंभी के नीले फूलों जैसी खिली-खिली
तुम्हें देखकर पिघलने लगते हैं
दुनिया कि कठोरता से सिकुड़े
मेरे सपनों के हिमखंड
शगुन की पीली साड़ी में लिपटी
तुम देखी थी पहली बार
जैसे बसंत बहार की टहनियों में भर गए हों फूल
सरसों के फूलों से छा गए हो खेत
भर गई हो बगिया लिली-पुष्पों से
कनेर की लचकती डालियाँ डुल रही हों धीमी
तुम्हें देखकर पीला रंग उतरता गया
आंखों के सहारे मेरी आत्मा के गहवर में
समय के इस मोड़ पर नदी किनारे खड़ा एक जड़ वृक्ष हूँ मैं
तुम कुदरुन की लताओं—सी चढ़ गई हो पुलुई पात पर
हवा के झोंकों से गतिमान है तुम्हारे अंग-प्रत्यंग
तुम्हारे स्पर्श से थिरकता है मेरा निष्कलुश उदवेग
दीए की मद्धिम लौ में पारा
काजल लगाती हो जब आंखों की बरौनीओं में
काले रंग से चमक जाता है तुम्हारा चेहरा
जिसके बीच जोहता हूँ मीठे सपने
आशंकाओं के घने अंधकार में भी
दिख जाती है फांक भर मुझे रोशनी की लकीरें
जिसके सहारे निर्विघ्न चल देता हूँ ज़िन्दगी की हर जंग में
भोर का उगता सूरज
गुलाब की खुलती पंखुड़ियाँ
स्थिर हो गई हैं तुम्हारे होठों की लाली पर
जिसके आगे फीके हैं अबीर-गुलाल के रंग
चकाचौंध से भरे बाज़ार की नकली उत्पादों के बरअक्स
हमने अपने हिस्से में बचा कर रखी है
यह अद्भुत नैसर्गिकता!
इंद्रधनुष के रंग युग्मों-सी
घुल गई हो तुम मेरे संग
आंचल की किनारी से चलाती हो जब
सहलाती हो जब मेरे टभकते घावों को
घिर आता हूँ मीठे सपनों की
बारिश की झड़ी में...!