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हरेक सम्त ही पेड़ों पे थे हरे पत्ते / मेहर गेरा
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हरेक सम्त ही पेड़ों पे थे हरे पत्ते
न जाने एक शजर के ही क्यों झड़े पत्ते
रुतों का फासला सदियों का फासला तो नहीं
जो अब झड़े है तो आ जाएंगे नये पत्ते
हवा-ए-तुन्द ने कैसा सितम किया बरपा
उड़ा के ले गये यादों के सिलसिले पत्ते
खिज़ां से पहले ही ख़ौफ़े-खिज़ां की नज़्र हुए
कहीं नहीं नज़र आते हरे-भरे पत्ते
तुम्हारे कुर्ब से सर-सब्ज़ था जो पेड़ कभी
मैं रोज़ देखता हूँ उसके सूखते पत्ते
ये बेनियाज़ हैं मंज़िल-रसीं की ख़्वाहिश से
हैं हमसफ़र मिरे पानी पे तैरते पत्ते।