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हर इक उम्मीद कल पर टल रही है / पवन कुमार
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हर इक उम्मीद कल पर टल रही है
हमारी ज़िन्दगी बस चल रही है
जरूरत है बहुत लब खोलने की
तुम्हारी ख़ामुशी अब खल रही है
मिरे हक में नहीं है कोई मंजिल
मगर उम्मीद दिल में पल रही है
बड़ी शादाब है ये रात तुमसे
मगर अफसोस ये भी ढल रही है
जिसे कहते हैं जन्नत इस जमीं की
उसी वादी में बफर् अब जल रही है
इसे तो जीतना था नफरतों को
मुहब्बत हाथ कैसे मल रही है
शादाब = हरा-भरा