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हर किसी से मैं पराजित ही रहा / डी. एम. मिश्र

हर किसी से मैं पराजित ही रहा
मैं ज़माने में विवादित ही रहा

पूज पाया देवताओं के न पद
इसलिए ताउम्र शापित ही रहा

मुँह नहीं मोड़ा कभी संघर्ष से
यूँ तो हर अभियान बाधित ही रहा

मैं ग़रीबी में पला, पलकर बढ़ा
मोह इस जीवन से किंचित ही रहा

फ़िक्र तो अब भी नहीं परिणाम की
क्या हुआ हर ख़्वाब खंडित ही रहा

सच कहूँ लेना नहीं आया मुझे
मैं पुरस्कारों से वंचित ही रहा

मैं फ़कीरी में भी था खुशहाल ही
वो अमीरी में भी कुंठित ही रहा