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हर वक़्त दिल पे जैसे कोई बोझसा रहा / अजय अज्ञात
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हर वक़्त दिल पे जैसे कोई बोझसा रहा
दिनरात कोई बात यूं ही सोचता रहा
संयम से मैंने काम लिया उलझनों में भी
हर फैसले पे अपने अडिग मैं सदा रहा
अंग्रेज तो चले गए भारत को छोड़ कर
अंग्रेजियत का कोढ़ मगर फैलता रहा
लिखता रहा मैं लेखनी को खूं में डुबो कर
उर में जगाता सब के नई चेतना रहा
मैंने किये वो काम सदा दिल से दोस्तो
जिन में भी मेरे देश का कुछ फायदा रहा
प्रारंभ से रूचि मिरी हिन्दी ही में रही
कविताओं से विशेष मेरा राबिता रहा
आवाज़ आत्मा की सदा सुनता रहा मैं
कोई भी मुझ को कुछ भी भले बोलता रहा
उलझा रहा हर आदमी रोटी की फिक्र में
पैसे के पीछे उम्रभर वो दौड़ता रहा