हर सुबह हर शाम / आत्म-रति तेरे लिये / रामस्वरूप ‘सिन्दूर’
हर सुबह, हर शाम, मैं नाकाम
कैसी ज़िन्दगी है!
बदनसीबों में हुआ सरनाम,
कैसी ज़िन्दगी है!
हर सुहागिन छाँह का दामन कटीला,
हर शिवालय रुख लिए बैठा नुकीला,
हर अतिथिशाला भरी बारातियों से,
हर चमन बैठा रचाये रास-लीला,
तमतमाये धूप में आराम,
कैसी ज़िन्दगी है!
बदनसीबों में हुआ सरनाम,
कैसी ज़िन्दगी है!
एक जल-कण ने अधर पर प्यास धर दी,
एक परिचय ने अपरिचित सृष्टि कर दी,
मूर्छना थी एक, चिर जागृति बनी है
एक रँग ने हर दिशा में रात भर दी,
श्वास के पल में हज़ार विराम,
कैसी ज़िन्दगी है!
बदनसीबों में हुआ सरनाम,
कैसी ज़िन्दगी है!
जो बिकाऊ है, वही सोना यहाँ है,
और जो सोना, उसी का तो जहाँ है,
धूल जो तैयार बिकने को नहीं है
उस बिचारी का ठिकाना ही कहाँ है,
अश्क कर जी रहा खैयाम
कैसी जिन्दगी है!
बदनसीबों में हुआ सरनाम,
कैसी ज़िन्दगी है!