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हवा-पानी की साज़िश से रही यूँ बेख़बर मिट्टी / अशोक अंजुम

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हवा - पानी की साज़िश से रही यूँ बेख़बर मिट्टी
लगीं हैं दीमकें ऐसे हुआ सारा शजर मिट्टी

यहाँ मिट्टी वहाँ मिट्टी , जिधर देखो उधर मिट्टी
ये कैसी धुंध छायी है लगे है कुल शहर मिट्टी !

मैं अपने खेत गिरवी रख के जबसे शहर में आया
मेरी आँखों में चुभती ही रही सारी उमर मिट्टी !

मिले ऐसे कि जैसे अजनबी से कोई मिलता है
बड़ी हसरत से आये थे हुआ सारा सफ़र मिट्टी !

जरूरी है कि खुलते भी रहें खिड़की-ओ-दरवाजे
वगरना हो न जाए एक दिन ये तेरा घर मिट्टी !

जरा-सा बीज था कल तक वह अब आकाश छूता है
बना दे बूँद को सागर रखे क्या-क्या हुनर मिट्टी !

हुआ था हादसा यूँ तो भरे बाज़ार अंजुम जी
कोई कुछ क्यों नहीं कहता हुआ क्या हर बशर मिट्टी !

हुआ जब ख़त्म साँसों का सफ़र तब रूह ये बोली
चलो चलते हैं अंजुम अब यहाँ की छोड़कर मिट्टी !