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हवा खि़लाफ़ है लेकिन दिए जलाता हूँ / डी. एम. मिश्र

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हवा ख़िलाफ़ है लेकिन दिए जलाता हूँ
हज़ार मुश्किलें हैं फिर भी मुस्कराता हूँ

सलाम आँधियाँ करती हैं मेरे ज़ज़्बों को
इक दिया बुझ गया तो दूसरा जलाता हूँ

मेरी दीवानगी का हाल मुझसे मत पूछो
बुझे न प्यास तो शोलों से लिपट जाता हूँ

ज़माना लाख है दुश्मन कोई परवाह नहीं
किया है प्यार तो फिर अंत तक निभाता हूँ
 
ख़़ु़शी मनाइये यारों कि सफ़र जा़री है
ग़म नहीं है कि हर क़दम पे चोट खाता हूँ

खुली क़िताब की मानिंद ज़िंदगी मेरी
कोई पर्दा नहीं है कुछ नहीं छुपाता हूँ

अनेक शेर मेरे ज़ाया हो गये फिर भी
रदीफ़, क़ाफ़िया, बहरो वज़न निभाता हूँ

न मैं कबीर न ग़ालिब न मीर, मोमिन ही
मिला जो ज़ख़्म ज़माने से वही गाता हूँ