भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
हवा जगाती अरुण सारथी वस्त्र बदलते देर हो गयी / रंजना वर्मा
Kavita Kosh से
हवा जगाती अरुण सारथी वस्त्र बदलते देर हो गयी।
टोना किया पूर्व ने रवि को आज निकलते देर हो गयी॥
मंजिल रही सामने अपने लगता था अब पा ही लेंगे
राहों ने ऐसा उलझाया चलते-चलते देर हो गयी॥
दूर एक चिनगी जो चमकी चला पतंगा आकुल होकर
परवाने जल मरे शमा को जलते-जलते देर हो गयी॥
त्रिविध समीरण उजली रातें रहा पपीहा लोरी गाता
आँखों में सपनों के पंछी पलते-पलते देर हो गयी॥
मुर्गों ने दी बांग उषा कि किरणों ने भी बहुत जगाया
पथिकों को अलसाई पलके मलते-मलते देर हो गयी॥
सत्य और निष्ठा के पर्वत हमने कितने ढहते देखे
लेकिन अब तो सच्चाई को छलते-छलते देर हो गयी॥
लुका छिपी मेघों सँग मिल कर रहा खेलता चाँद निशा भर
तारों ने छू लिया रात को ढलते-ढलते देर हो गई॥