हाए लोगों की करम-फरमाइयाँ / 'कैफ़' भोपाली
हाए लोगों की करम-फरमाइयाँ
तोहमतें बदनामियाँ रूसवाइयाँ
ज़िंदगी शायद इसी का नाम है
दूरियाँ मजबूरियाँ तन्हाइयाँ
क्या ज़माने में यूँ ही कटती है रात
करवटें बेताबियाँ अँगड़ाइयाँ
क्या यही होती है शाम-ए-इंतिज़ार
आहटें घबराहटें परछाइयाँ
एक रिंद-ए-मस्त की ठोकर में है
शाहियाँ सुल्तानियाँ दराइयाँ
एक पैकर में सिमट कर रह गई
खूबियाँ जे़बाइयाँ रानाइयाँ
रह गई एक तिफ्ल-ए-मकतब के हुजूर
हिकमतें आगाहियाँ दानाइयाँ
ज़ख्म दिल के फिर हरे करने लगी
बदलियाँ बरखा रूतें पुरवाइयाँ
दीदा ओ दानिस्ता उन के सामने
लग्ज़िशें नाकामियाँ पसपाइयाँ
मेरे दिल की धड़कनों में ढल गई
चूड़ियाँ, मौसीकियाँ, शहनाइयाँ
उनसे मिलकर और भी कुछ बढ़ गई
उलझनें फिक्रें कयास-आराइयाँ
‘कैफ’ पैदा कर समंदर की तरह
वुसअतें खामोशियाँ गहराइयाँ