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हाव-लक्षण / रस प्रबोध / रसलीन

Kavita Kosh से
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हाव-लक्षण
तथा
हाव-अनुभाव-विवेक-वर्णन

सम संजोग सिंगार की इहाँ कहीयत हाव।
अनुभव जानि विशेषि अरु यै सामान्य सुभाव॥709॥
जहाँ बचन क्रम चेष्टा बरनत हैं कवि लोइ।
सो अनुभावनु हाव है तहाँ भेद ये जोइ॥710॥
जो रति भाव प्रगट करै सो अनुभाव बखान।
रति बढ़ि वहै सिंगार पुन हाव होत है आन॥711॥
बहुत हाव कछु हेत लहि होत न रति मैं आइ।
बरने सहज सुभाव लखि नारिन ही मैं ल्याइ॥712॥

लीलादिक
हाव दसा-वर्णन
सुभावक-लक्षण

सो लीला पिय देखि तिय निज तन राचे ल्याइ।
वह बिलास पिय लखि करै तिय मन हरन सुभाइ॥713॥
चितवनादि त्रिय आभारन फवनि ललित है सोइ।
रिस ते निदरहि भूषननि छबि विच्छित्ति सम होइ॥714॥
कपट निरादर गरब तें यह बिब्बोक विचारि।
पूरन होवै चाह जिहि पिय संग बिहित निहारि॥715॥

मोटायत प्रगटै जो तिय ऐठिनादि तां पाउ।
कलह करै जो केलि कैसोइ कुट्टुमिन हाउ॥716॥
किलकिंचित रोदन हँसन रिस भय आदि गिनाइ।
सो बिभ्रम उलटो तिया करै जो काज बनाइ॥717॥

लीलाहाव-उदाहरण

आजु राधिका आप को हरि के रूप बनाइ।
बृज बनितनि कौ लै गई बृज बनि तन बहकाइ॥718॥
स्याम भेस बनि कै गई राधा कुंजनि धाम।
भूल्यौ भेस चकित भई जित देखै तित स्याम॥719॥

विलासहाव-उदाहरण

दृगन जोरि अठिलाइ अरु भौंहन को बिलसाइ।
कामिनि पिय हिय गोद मैं मोद भरत सी जाइ॥720॥
भौंह भ्रमाइ नचाइ दृग अरु अधरन मुसुकाइ।
पियहि अनन्द बढ़ाइ तिय चली मंद गरुवाइ॥721॥

ललितहाव-उदाहरण

रमनी तुव अखियनि चितै अरु अधरन मुसुकाइ।
मद अनमद दोऊ दये निज प्रीतम को प्याइ॥722॥
ज्यौं पट भूषन के सजे अंग अंग छबि होति।
त्यौं भूषन तें ह्वै रही पटभूषन की जोति॥723॥

विच्छित हाव-उदाहरण

बिना सजे भूषनन के कहा होत है नारि।
बिधि के सजे सिंगार सो तूँ नहि सकति उतारि॥724॥
स्याम लाल इनि तिलक तुव यह रंग कीन्हौं बाल।
सौतिन को रँग स्याम दै रँग्यौ स्याम को लाल॥725॥
चाह नहीं भूषनन को तुव अंगिनि सुकुमार।
हियौ झुलावनहार है तौ हिय झूलनहार॥726॥

बिब्बोक हाव-उदाहरण

बात होइ सो दूरि ते दीजै मोहि सुनाइ।
कारे हाथनि जनि गहौ लाल चूनरो आइ॥727॥
ज्यौं ज्यौं छकि छकि नेह तें पगन परत है लाल।
त्यौं त्यौं रूसी यों परति कौतुक छकी रसाल॥728॥


विहित हाव-उदाहरण

लखि न सकति तिय नैन भरि धरी सखिन की आनि।
पीपर भाँवर तन भरै प पर भावरि प्रानि॥729॥
बात कहत हरि सों भई यह तिय की गति आज।
ज्यौं ज्यौं खोल्यौ मदन मुख त्यौं त्यौं मूँद्यौ लाज॥730॥

मोटायितहव-उदाहरण

स्याम बिलोकत काम तें भो यह बाम सुभाइ।
करन खुजाइ उठाइ कर अँगरानी जमुहाइ॥731॥

बिहित-हाव
तथा
मोटायित-हाव भाव-दूसरे मत से

प्रगट भए चित चाव तिय पिय सों करै दुराव।
ताहि बिहित कोऊ कहै कोउ मोट्टायित हाव॥732॥

उदाहरण

स्याम बिलोकत काते भयो कम्प जो बाम।
सीत नाम लै लाज तें बैठि गई तेंहि ठाम॥733॥

कुट्टमित हाव-उदाहरण

खिनि कुच मसकति खिनि लजति खिनि मुख लखति विसेखि।
छति भयो पिय तिय हँसति उचकति ससकति देखि॥734॥
केहि बिधि तिहि उर लाइयत जाकी पकरति बाँह।
एक सो करन मैं छयो अंग सीकरन माँह॥735॥

किलकिंचित हाव-उदाहरण

सिव सिर कै ससि लै सिवा तकि निज छाँह भ्रमाइ।
हारि छकी रोई बहुरि हँसी आपुको पाइ॥736॥

विनम्र हाव-उदाहरण

बैठी अरुन कपोल दै लाइ दिठौना भाल।
इहि बिधि केहि मन हरन यह चलो नबेली बाल॥737॥

बोधकादि दसहाव सुभावक का
लक्षण

सैन बुझावै करि क्रिया बोधक कहिये सोइ।
सोइ मुगुधिता जानिकै तिया अयानो होइ॥738॥
हसत सरस रस उमँग ते पिय ढिग तिय मुसकानि।
रूप तरुनता काम ते गरब सोई मद जानि॥739॥
कौनहु हित संताप तिय होइ तपन है सोइ।
सो बिछेप भंगन भये हानि ग्यान को होइ॥740॥
चकित सुऔचक चौंकिबो कछु अचिरज को देखि।
पियहि रिझावै बेष रचि सोइ केलि अविरेखि॥741॥
कौतुक रचि बन उठि चले कौतूहल सौं गाइ।
बातन को बिस्तार जहँ उद्दीपन कहि जाइ॥742॥

बोधक हाव-उदाहरण

माँग बीच धरि आँगुरी ढापि नील पट भाल।
अरघ निसा ससि छपति हीं सैन बताई बाल॥743॥
पिय की चाह सखी कही फूल सुदरसन लाइ।
उत्तरु दीन्हौं नागरी जाती फूल दिखाइ॥744॥

मौगध हाव-उदाहरण

अधिक अयानी बन चली खेलि खेलि पिय साथ।
करका बरसत मुकुत रहि धाइ गहत है हाथ॥745॥

हसित हाव-उदाहरण

सखिन ओर मुख मोरि कै निज सोहाग सुख पाइ।
बार-बार अँगराति सो भाग भरी मुसकाइ॥746॥

मदहाव-उदाहरण

रूप गरब जोबन नगर मदन गरब के जोर।
लाल दृगन मैं मदभरी आवत चलो हिलोरि॥747॥

तपनहाव-उदाहरण

जो सोहाग भूषन सजे तिय पिय सुनत पयान।
ते जरि कंचन ह्वै गिरे उपजत बिरह कृसान॥748॥
ज्यासु गई जुग जामिनी स्याम न आये धाम।
ठाम ठाम तम बाम ह्वै जारन ल्यागौ काम॥749॥

बिच्छेप हाव-उदाहरण

सिगरी चितवत है खरी नगरी तें न डराति।
गगरी भरिबो छाड़ि के तूँ कत डगरी जाति॥750॥

चकित हाव-उदाहरण

घन गरजत चकचौंधि यौं डरी नारि गहि नाह।
ज्यौं दामिनि अति कौंधि कै डरै स्याम घन माँह॥751॥

केलि हाव-उदाहरण

फगुवा मिसि तिय छीनि पट अचिरज कियौ बनाइ।
नटनि दैनि चलि फिरनि मैं दीन्हौं स्याम नचाइ॥752॥

कौतूहल हाव-उदाहरण

अंग सिँगारत कान्ह सुनि यहि बिधि दौरी बाल।
कहुँ बेंदुलि कहुँ उरबसी कहूँ गिरी मनिमाल॥753॥

उद्दीपन हाव-उदाहरण

हहा स्याम बेनी तज्यौ बेनी तजियत बाम।
कौन अकामहि करत हौ प्यारी यह तौ काम॥754॥

तीन हाव-मनोभाव-वर्णन

भाव हाव हेला तिहूँ मन ते उपजत आनि।
डरे प्रकट रस अति भरे तीनौं लीजे मानि॥755॥

भाव-लक्षण

मन की लगन जो पहिलही सो कहियत है भाव।
चतुर सहेली जानियति एकै देखि सुभाव॥756॥

भाव-उदाहरण

मन औरे सो ह्वै गयो रही न तन मैं छाज।
मोही यो लागत कहूँ मोही है तूँ आज॥757॥
मोही है अँसुवान तें रही अरुनता छाइ।
काहू इन तुव दृगनि मैं नेह दयौ है नाइ॥758॥

हाव-लक्षण

दृग अंचल हेरै हँसै बोलैं मीठे बैन।
प्रेम चातुरी बरत जुत हाव कहत तेहि ऐन॥759॥

हाव-उदाहरण

चलत साँकरी खोरि मैं हरि तन परसत बाम।
बदन खोलि कछु मोरि कै हँसि बोली तकि स्याम॥760॥
तौ बसन्त कोऊ नहीं आनि खेलि है बाल।
मुख गुलाब कुच अरगजा जो गहि लावो लाल॥761॥

हेला-लक्षण

प्रीत भाव प्रोड़त्तु मैं छूटै लासु सुभाव।
ठिठाइक कृत जो कामिनि सोइ हेला हाव॥762॥

हेला हाव-उदाहरण

चिवनि बान चलाइ अरु हास क्रिपान लगाइ।
उरज गुरज पिय हिय हनै भुज फाँसी गर ल्याइ॥763॥

सात हाव ऐतनुज वर्णन

स्वाभाविक कहि बीस अरु कहे मनोभव तीन।
सात ऐतनुज जानि कै अब बरनत रसलीन॥764॥

रूप प्रकास से
चतुर्विधि स्वाभाविक-लक्षण

रूप राजि सी फवन को रचभब बरनै जानु।
अंग झलक अरु विमलता सोइ कांति परमानु॥765॥
कांतिहि को बिस्तार सों दीपति चित मैं लाउ।
अतुल रूप की मधुरता सो माधुर जग नाउ॥766॥

सोभा-उदाहरण
जित देखत तुव अंग दृग तित सुख लहत अपार।
मानो लीन्हौ रूप ही नख सिख ते अवतार॥767॥
एक सखी कर लै छरी हँसत चकोर न धाइ।
एक भौंर की भीर कौं मारत चौंर डुलाइ॥768॥

कांति-उदाहरण

मुकुर बिमलता लहि गहे कमल मधुरता बास।
तौ तुव तन के मिलन की सुबरन राखै आस॥769॥
अमल हिये धन के परी लाल आइ यह छाँह।
जानि आपनी उर बसी कत भरमत मन मांहि॥770॥

दीपति-उदाहरण

चंद छानि बिधि मुख रचे तन चपला सों ठानि।
तापरि ओप धरै खरी तौ तूँ पूजै आनि॥771॥

माधुर्य-उदाहरण

कुमति चंद्र प्रति द्यौस बढ़ि मास मास बढ़ि आइ।
तुव मुख मधुराई लखै फीको परि घटि जाइ॥772॥
बिनु सिँगार तुव मधुरई प्रान देत घटि आनि।
मानो बिधि यह तन रच्यौ सुद्ध सुधा सौ सानि॥773॥

शोभा कांति, दीप्ति के लक्षण
दूसरे मत से

जोबन ते जो उपजई सोभा ताहि विचार।
जो कछु उपजै मदन तें सोइ कांति निरधार॥774॥
कांतिहि के बिस्तार कों दीपति जिय मैं जानि।
तिनहूँ के अब कहत हौं उदाहरन को आनि॥775॥

शोभा-उदाहरण

आवत मदन महीप के जोबन आगुहि आइ।
और और तन नगरियन राखी सरस बनाइ॥776॥

कांति-उदाहरण

ज्यौं ज्यौं मनमथ आइ उर मनदधि मथत बनाइ।
त्यौं त्यौं मदघृत बिदित ह्वै ठौरि ठौरि उतराइ॥777॥

दीप्ति-उदाहरण

हाव भाव प्रति अंग लखि छबि की झलक निसंक।
भूलत ग्यान तरंग सब ज्यौं करछाल कुरंग॥778॥

प्रगल्भता, धीरता, विनय का उदाहरण

प्रगलभता जोबन गरब चलै हँसै निरसंक।
पातिब्रत अरु प्रेम दृढ़ सो धीरत को अंक॥779॥
विनय नवनि जो सीलजुत रिस मैं रस अधिकाइ।
अब बरनत हौं तिहुँन के उदाहरन को ल्याइ॥780॥

प्रगल्भता-उदाहरण

केसर आड़ लिलार दै बिना आड़ चलि आइ।
ठाड़ टोन सो मारि यह चाउ भरी मुसुकाइ॥781॥
निकसि तियनि के जाल सो मुख तें घूँघट टारि।
अरी हरी मति इनि हरी फूल छरी सों मारि॥782॥

धीरता-उदाहरण

किते सप्तरिषि लौं फिरत चहुँदिसि धरि धरि प्रेम।
तऊ न धु्रव लौं तजति यह थिरताई कौ नेम॥783॥
हनि हनि मारत मदन सर बैर तियन सों ठानि।
तऊ सुभट लौ मन डरहिं पकरि खेत कुलकानि॥784॥
कत मारत मोहि आनि नित रे मनमथ मति हीन।
मन तो मैं पिय बदन तजि मर्यौ न ह्वै है लीन॥785॥
दीप तिहारे नेह को बरत रहत हिय मांहि।
बात चहुँदिसि की सहै बूझत कैसे हूँ नाहिं॥786॥

विनय-उदाहरण

बाल यहै जग माहि जिन बालन गहौ सुभाइ।
सीस चढ़ाये हूँ सदा नैनै परसत पाइ॥787॥
पिय अपराध जनाइ सखि कितो सिखावत मान।
सील भरे तिय दृग तऊ तजत न अपनी बान॥788॥

औदार्य-लक्षण

इक बरनत है बिनय तकि औदारिज को आनि।
ताहू की लच्छन सुनहुँ अब हौं कहत बखानि॥789॥
महा प्रेम रस बस परे औदारिज कहि ताहि।
जीवन तन धन लाज की जहाँ नहीं परवाहि॥790॥

औदार्य-उदाहरण

यह मति राधे की भई सुनि मुरली की तान।
तन कहँ धन कहँ लाज कहँ दैन चहो तव प्रान॥791॥
दई जो तुम बनमाल सो हिय लाई वह बाल।
ह्वै निहाल यहि हाल ही मोहि दई मनि माल॥792॥
प्राण निछावर करति है छन छन वा पै बाल।
जो जमुना तट पर दयो निजु बैजंती माल॥793॥

हाव-गणना

स्वाभाविक जे बीस अरु मनो भव त्रय अभिराम।
लहत सात स्वाभाव मिलि अलंकार हूँ नाम॥794॥
अलंकार नारीन के दीने तीस गनाइ।
लै बहु अंथन को मतो तेहि राखहु चितलाइ॥795॥