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हैं बे-नियाज़-ए-ख़ल्क तिरा दर है और हम / 'रशीद' रामपुरी
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हैं बे-नियाज़-ए-ख़ल्क तिरा दर है और हम
तेरी गली है ख़ाक का बिस्तर है और हम
सजदों से रात दिन के है तौहीन-ए-बंदगी
सर तोड़ने के वास्ते पत्थर है और हम
इस ख़ौफ़ से कि पाँव न खुल जाए ग़ैर का
दिन रात कू-ए-यार का चक्कर है और हम
कैसा ख़ुलूस किस की मोहब्बत कहाँ का इश्क़
महशर में दामन-ए-बुत-ए-ख़ुद-सर है और हम
गो हर्फ़ हर्फ़ डाल दिया उन के कान में
आगे ‘रशीद’ अपना मुक़द्दर है और हम