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है फ़िक्र अब कि तेरी आरज़ू करें न करें / कांतिमोहन 'सोज़'
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14 फ़रवरी 1990 की यह ग़ज़ल 24-25 साल बाद मुकम्मल हुई है
है फ़िक्र अब कि तेरी आरज़ू करें न करें ।
रसाई की भी कोई जुस्तजू करें न करें ।।
कोई बताय शबे-ग़म की सुब्ह है कि नहीं,
चराग़े-ज़ीस्त को अब पुरलहू करें न करें ।
कभी ख़मोश कभी शोख़ तानाज़न है कभी,
हम आइने से कोई गुफ़्तगू करें न करें ।
बदल चुका है समां ये तो जानते हैं सभी,
ग़रूरे-इश्क़ को अब सुर्ख़रू करें न करें ।
हमें पता है कि फिर तार-तार होगा मगर,
हमें बताओ कि दामन रफ़ू करें न करें ।
सलाह शेख़ की मानें कि दिल की बात सुनें,
मुरादे-सोह्बते-जामो-सबू करें न करें ।
बड़ी शरीर है उसको बना न दे लैला,
सबा से तज़्क़िर-ए-मुश्कबू करें न करें ।।
22.12.2014