भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
होता रहा जब राख मेरा घर मेरे आगे / गोविन्द गुलशन
Kavita Kosh से
होता रहा जब राख मेरा घर मेरे आगे
रोता ही रहा मेरा मुक़द्दर मेरे आगे
ख़ुशबू तो कई रंग की लाया है सवेरा
बिखरा है मगर शाम का मंज़र मेरे आगे
दिल हूँ मैं पता है मुझे क्या है मेरी अज़्मत
कुछ भी नहीं सहरा, ये समन्दर मेरे आगे
हो जाएगी ज़ख़्मी ये अना ही तो है आख़िर
मत फेंकिए इमदाद के गौहर मेरे आगे
ये कैसी हवा है जो कहो उल्टा करे है
फैला दिए आवाज़ के पत्थर मेरे आगे