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होना ही क्या ज़रूर थे ये दो-जहाँ हैं क्यूँ / बेहज़ाद लखनवी

होना ही क्या ज़रूर थे ये दो-जहाँ हैं क्यूँ
अल्लाह इक फ़रेब में कौन-ओ-मकाँ हैं क्यूँ

सुनते हैं एक दर्द तो उठता है बार-बार
उस की ख़बर नहीं है कि आँसू रवाँ हैं क्यूँ

इन बे-नियाज़ियों में भी शान-ए-नियाज़ है
सज्दे नहीं पसन्द तो फिर आस्ताँ हैं क्यूँ

जिस गुलिस्ताँ में रोज़ तड़पती हैं बिजलियाँ
यारब उसी चमन में ये फिर आशियाँ हैं क्यूँ

इस का हमें मलाल है हम क्यूँ बदल गए
इस का नहीं मलाल कि वो बद-गुमाँ हैं क्यूँ

जब दिल नहीं रहा तो तमन्ना का काम क्या
जब कारवाँ नहीं तो पस-ए-कारवाँ हैं क्यूँ

'बहज़ाद' उन के हिज्र में घबरा रहा है दिल
अब क्या कहें किसी से कि बस ख़ानुमाँ हैं क्यूँ