भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

हो कोई शहर गर तो मेरे गोरखपुर जैसा हो / देवेन्द्र आर्य

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

दिलों की घाटियों में बज रहे सन्तूर जैसा हो ।
हो कोई शहर गर तो मेरे गोरखपूर जैसा हो ।

इधर कुसमी का जंगल हो, उधर हो राप्ती बहती,
शहर की मांग में इक गोलघर सिन्दूर जैसा हो ।

कबीरा की तरह ज़िद्दी, तथागत की तरह त्यागी,
वतन के नाम बिस्मिल की तरह मगरूर जैसा हो ।

यहीं के चौरीचौरा काण्ड ने गाँधी को बदला था,
भले यह इस समय अपने समय से दूर जैसा हो ।

बहुत मशहूर है दुनिया में गोरखपुर का गीता प्रेस,
नहीं दिखता जहाँ कुछ भी कि जो मशहूर जैसा हो ।

हुए मजनूँ, फिराक और विज्ञ, राही, हिन्दी, बंगाली,
शहर में एक परमानन्द कोहेनूर जैसा हो ।

ये है पोद्दार, शिब्बनलाल, राघवदास की धरती,
यहाँ का आदमी फिर किसलिए मजबूर जैसा हो ?

है दस्तावेज़, रचना, भंगिमा, जनस्वर, रियाजुल का,
कहाँ मुमकिन है कोई शहर गोरखपूर जैसा हो ?

हो गोरखनाथ का मन्दिर तो एक ईमामबाड़ा भी,
उजाला घर से बेहतर दिल में हो और नूर जैसा हो ।

इबादत इल्म की, इंसानियत की, भाईचारे की,
हमारा रूठना भी प्यार के दस्तूर जैसा हो ।

यही दिल से दुआ करता हूँ मैं, तुमको मेरे भाई,
तुम्हारा शहर मेरे शहर गोरखपूर जैसा हो ।