...तो, मत पढ़ना मुझे / मुकेश निर्विकार
यदि आप शब्दों की गहराई, मर्म, भाव, संवेदन
के बजाए/सुनना चाहते हैं सिर्फ कर्णराग
तो मत पढ़ना मुझे!
मैं झूठी तारीफ करने वाला,
कर्णप्रिय सुर-ताल-छन्दों में चिल्लाने वाला
दरबारी चारण नहीं हूँ
और न ही आप भी कोई
राजा हैं जनाब!
वर्तमान अपराधी समय में
मैं और आप
घुट-घुटकर जी रहे हैं
आओ, इस युग-यथार्थ को स्वीकार करें/
और करें मुठभेड़/अपने समय से।
अपने अभाव, कष्ट, क्लेश, द्धिविधा, संशय और संत्रास
से ही उगायेँ कविता का कोई बिरवा
फलें भले ही उससे हमारे दुखों के काँटे
लेकिन संतोष, वह हमारी अपनी चीज होगी
(हम अभ्यस्त भी हैं अपनी काँटों की चुभन के/उम्र भर से)
कम-अज-कम गैर के फूलों की मृगमरीचिका तो नहीं
जो ललचा कर हमें
छोड़ कर जाती है हर बार
अधर में स्वप्न के
तड़पते रहने को बेबस ..... ।
यदि आप गीत-संगीत सुनना चाहते हैं
तो कृपया किताब न पढे,
टी.वी. चलाएं, सिनेमा जायेँ, एफ.एम. का बटन दबाएँ।
छपे हुए शब्दों में तो आप
अलोने शब्दों का स्वाद भर चखें
जाने कण्ठ की मधुरता, छंद और संगीत के बिना
अलोने शब्दों का असल स्वाद भला कैसा होता है
यही बीमार कविता के स्वस्थ होने का पथ्य है।
इसलिए बे-मन से नहीं,
भरपूर जिजीविषा और उम्मीद के साथ
चखो, मेरी कविता के अलोने शब्द
जो हैं
कर्णराग के छद्ध से सर्वथा परे!