61 से 70 तक / तुलसीदास / पृष्ठ 3
पद 65 से 66 तक
(65)
जय राम राम रमु, राम राम रटु, राम राम जपु जीहा।
रामनाम-नवनेह-मेहको, मनं हठि होहि पपीहा।।
सब साधन-फल कूप-सरित-सर, सागर-सलिल-निरासा।
रामनाम-रति-स्वाति-सुधा-सुभ-सीकर प्रेमपियासा।।
गरजि,तरजि, पाषाण बरषि पवि, प्रीति परखि जिय जानै।
अधिक अधिक अनुराग उमंग उर, पर परमिति पहिचानै।।
रामनाम-गति, रामनाम-मति, राम-नाम अनुरागी।
ह्वै गये, हैं जे होहिंगे, तेइ त्रिभुवन गनियत बड़भागी।।
एक अंग मग अगमु गवन कर, बिलमु न छिन छिन छाहैं।
तुलसी हित अपनो अपनी दिसि, निरूपधि नेम निबाहै।।
(66)
राम जपु, राम जपु, राम जपु, बावरे।
घोर भव-नीर-निधि नाम निज नाव रे।।
एक ही साधन सब रिद्वि -सिद्वि साधि रे।
ग्रसे कलि-रोग जोग -संजम-समाधि रे।।
भलेा जो है, पोच जो है, दहिनो जो, बाम रे।
राम-नाम ही सों अंत सब ही को काम रे।।
जग नभ-बाटिका रही है फलि फूलि रे।
धुंवाँ कैसे धौरहर देखि तू न भूलि रे।।
राम-नाम छाड़ि जो भरोसो करै और रे।
तुलसी परोसो त्यागि माँगै कूर कौन रे।।