भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"जलाया आप हमने ज़ब्त कर कर आह-ए-सोज़ाँ को / ज़फ़र" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
(नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=बहादुर शाह ज़फ़र |संग्रह=ज़फ़र की शायरी / बहादु…)
 
पंक्ति 10: पंक्ति 10:
 
जिगर को, सीना को, पहलू को, दिल को, जिस्म को, जां को
 
जिगर को, सीना को, पहलू को, दिल को, जिस्म को, जां को
  
हमेशा कुंजे-तन्हाई में मूनिस हम समझते है
+
हमेशा कुंजे-तन्हाई<ref>अकेलापन</ref> में मूनिस<ref>सहायक</ref>  हम समझते है
 
अलम को, यास को, हसरत को, बेताबी को, हुरमां को
 
अलम को, यास को, हसरत को, बेताबी को, हुरमां को
  

17:17, 30 दिसम्बर 2010 का अवतरण


जलाया आप हमने, जब्त कर-कर आहे-सोजां<ref>जलती हुई आहें</ref> को
जिगर को, सीना को, पहलू को, दिल को, जिस्म को, जां को

हमेशा कुंजे-तन्हाई<ref>अकेलापन</ref> में मूनिस<ref>सहायक</ref> हम समझते है
अलम को, यास को, हसरत को, बेताबी को, हुरमां को

जगह किस-किस को दूं दिल में, तेरे हाथों से ऐ कातिल
कटारी को, छुरी को, बांक को, खंजर को, पैकां को

न हो जब तू ही ऐ साकी, भला फिर क्या करे कोई
हवा को, अब्र को, गुल को, चमन को, सहन-ए-बस्तां को

नही कुलकुल दुआ देता है शीषा दम-ब-दम साकी
सुबू को, खूम को, मय को, मयकदा को, मयपरस्तां को

तुझे दिल दे के मैं ऐ काफिरे-बेमहर खो बैठा
खिरद को, होष को, ताकत को, जी को, दीना ईमां को,

बनाया ऐ ‘जफर’ खालिक ने जब इन्सान से बेहतर
मलक को, देव को, जिन को, परी को, हूरो-गिलमां को

शब्दार्थ
<references/>