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| + | आर्य्य-भूमि | ||
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| + | जहाँ हुए व्यास मुनि-प्रधान, | ||
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| + | रामादि राजा अति कीर्तिमान। | ||
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| + | जो थी जगत्पूजित धन्य-भूमि , | ||
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| + | वही हमारी यह आर्य्य- भूमि ।। | ||
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| + | जहाँ हुए साधु हा महान् | ||
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| + | थे लोग सारे धन-धर्म्मवान्। | ||
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| + | जो थी जगत्पूजित धर्म्म-भूमि, | ||
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| + | वही हमारी यह आर्य्य-भूमि।। | ||
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| + | जहाँ सभी थे निज धर्म्म धारी, | ||
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| + | स्वदेश का भी अभिमान भारी । | ||
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| + | जो थी जगत्पूजित पूज्य-भूमि, | ||
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| + | वही हमारी यह आर्य्य-भूमि।। | ||
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| + | हुए प्रजापाल नरेश नाना, | ||
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| + | प्रजा जिन्होंने सुत-तुल्य जाना । | ||
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| + | जो थी जगत्पूजित सौख्य- भूमि , | ||
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| + | वही हमारी यह आर्य्य-भूमि।। | ||
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| + | वीरांगना भारत-भामिली थीं, | ||
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| + | वीरप्रसू भी कुल- कामिनी थीं । | ||
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| + | जो थ जगत्पूजित वीर- भूमि, | ||
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| + | वही हमारी यह आर्य्य-भूमि।। | ||
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| + | स्वदेश-सेवी जन लक्ष लक्ष, | ||
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| + | हुए जहाँ हैं निज-कार्य्य दक्ष । | ||
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| + | जो थी जगत्पूजित कार्य्य-भूमि, | ||
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| + | वही हमारी यह आर्य्य-भूमि।। | ||
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| + | स्देश-कल्याण सुपुण्य जान, | ||
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| + | जहाँ हुए यत्न सदा महान। | ||
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| + | जो थी जगत्पूजित पुण्य भूमि, | ||
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| + | वही हमारी यह आर्य्य-भूमि।। | ||
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| + | 8 | ||
| + | न स्वार्थ का लेण जरा कहीं था, | ||
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| + | देशार्थ का त्याग कहीं नहीं था। | ||
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| + | जो थी जगत्पूजित श्रेष्ठ-भुमि, | ||
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| + | वही हमारी यह आर्य्य-भूमि।। | ||
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| + | 9 | ||
| + | कोई कभी धीर न छोड़ता था, | ||
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| + | न मृत्यु से भी मुँह मोड़ता था। | ||
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| + | जो थी जगत्पूजित धैर्य्य- भूमि, | ||
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| + | वही हमारी यह आर्य्य-भूमि।। | ||
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| + | स्वदेश के शत्रु स्वशत्रु माने, | ||
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| + | जहाँ सभी ने शर-चाप ताने । | ||
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| + | जो थी जगत्पूजित शौर्य्य-भूमि, | ||
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| + | वही हमारी यह आर्य्य-भूमि।। | ||
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| + | अनेक थे वर्णे तथापि सारे | ||
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| + | थे एकताबद्ध जहाँ हमारे | ||
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| + | जो थी जगत्पूजित ऐक्य-भूमि, | ||
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| + | वही हमारी यह आर्य भूमि ।। | ||
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| + | 12 | ||
| + | थी मातृभूमि-व्रत-भक्ति भारी, | ||
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| + | जहां हुए शुर यशोधिकारी । | ||
| + | |||
| + | जो थी जगत्पूजित कीर्ति-भूमि, | ||
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| + | वही हमारी यह आर्यभूमि ।। | ||
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| + | 13 | ||
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| + | दिव्यास्त्र विद्या बल, दिव्य यान, | ||
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| + | छाया जहाँ था अति दिव्य ज्ञान । | ||
| + | |||
| + | जो थी जगत्पूजित दिव्यभूमि, | ||
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| + | वही हमारी यह आर्यभूमि ।। | ||
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| + | 14 | ||
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| + | नये नये देश जहाँ अनेक, | ||
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| + | जीत गये थे नित एक एक । | ||
| + | |||
| + | जो थी जगत्पूजित भाग्यभूमि, | ||
| + | |||
| + | वही हमारी यह आर्यभूमि ।। | ||
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| + | 15 | ||
| + | |||
| + | विचार एसे जब चित्त आते, | ||
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| + | विषाद पैदा करते, सताते । | ||
| + | |||
| + | न क्या कभी देव दया करेंगे ? | ||
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| + | न क्या हमारे दिन भी फिरेंगे ? | ||
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| + | (अप्रैल, 1906 की सरस्वती में प्रकाशित ) | ||
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| + | कविता का नामः आर्यभूमि | ||
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| + | कविः महावीर प्रसाद द्विवेदी | ||
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| + | प्रस्तुतिः जयप्रकाश मानस | ||
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| + | ग्राम्य जीवन | ||
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| + | छोटे-छोटे भवन स्वच्छ अति दृष्टि मनोहर आते हैं | ||
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| + | रत्न जटित प्रासादों से भी बढ़कर शोभा पाते हैं | ||
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| + | बट-पीपल की शीतल छाया फैली कैसी चहुँ ओर है | ||
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| + | द्विजगण सुन्दर गान सुनाते नृत्य कहीं दिखलाते मोर । | ||
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| + | शान्ति पूर्ण लघु ग्राम बड़ा ही सुखमय होता है भाई | ||
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| + | देखो नगरों से भी बढ़कर इनकी शोभा अधिकाई | ||
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| + | कपट द्वेष छलहीन यहाँ के रहने वाले चतुर किसान | ||
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| + | दिवस विताते हैं प्रफुलित चित, करते अतिथि द्विजों का मान । | ||
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| + | आस-पास में है फुलवारी कहीं-कहीं पर बाग अनूप | ||
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| + | केले नारंगी के तरुगण दिखालते हैं सुन्दर रूप | ||
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| + | नूतन मीठे फल बागों से नित खाने को मिलते हैं । | ||
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| + | देने को फुलेस –सा सौरभ पुष्प यहाँ नित खिलते हैं। | ||
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| + | पास जलाशय के खेतों में ईख खड़ी लहराती है | ||
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| + | हरी भरी यह फसल धान की कृषकों के मन भाती है | ||
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| + | खेतों में आते ये देखो हिरणों के बच्चे चुप-चाप | ||
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| + | यहाँ नहीं हैं छली शिकारी धरते सुख से पदचाप | ||
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| + | कभी-कभी कृषकों के बालक उन्हें पकड़ने जाते हैं | ||
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| + | दौड़-दौड़ के थक जाते वे कहाँ पकड़ में आते हैं । | ||
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| + | बहता एक सुनिर्मल झरना कल-कल शब्द सुनाता है | ||
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| + | मानों कृषकों को उन्नति के लिए मार्ग बतलाता है | ||
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| + | गोधन चरते कैसे सुन्दर गल घंटी बजती सुख मूल | ||
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| + | चरवाहे फिरते हैं सुख से देखो ये तटनी के फूल | ||
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| + | ग्राम्य जनों को लभ्य सदा है सब प्रकार सुख शांति अपार | ||
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| + | झंझट हीन बिताते जीवन करते दान धर्म सुखसार | ||
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| + | कविता का नामः ग्राम्य जीवन | ||
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| + | कविः प.(पद्मश्री)मुकुटधर पांडेय | ||
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| + | प्रस्तुतिः जयप्रकाश मानस | ||
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| + | टीपः कवि छायावाद कविता के जनक माने जाते हैं । स्वयं प्रसाद जी ने इन्हें छायवाद शब्द का प्रथम प्रयोक्ता माना था । | ||
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| + | बता मुझे ऐ विहग विदेशी अपने जी की बात | ||
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| + | पिछड़ा था तू कहाँ, आ रहा जो कर इतनी रात | ||
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| + | निद्रा में जा पड़े कभी के ग्राम-मनुज स्वच्न्द | ||
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| + | अन्य विग भी निज़ नीड़ों में सोते हैं सानन्द | ||
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| + | इस नीरव घटिका में उड़ता है तू चिन्तत गात | ||
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| + | पिछड़ा था तू कहाँ, हुई क्यों तुझको इतनी रात ? | ||
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| + | देख किसी माया प्रान्तर का चित्रित चारु दुकूल ? | ||
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| + | क्या तेरा मन मोहजाल में गया कहीं था भूल ? | ||
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| + | क्या उसका सौन्दर्य-सुरा से उठा हृदय तव ऊब ? | ||
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| + | या आशा की मरीचिका से छला गया तू खूब ? | ||
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| + | या होकर दिग्भ्रान्त लिया था तूने पथ प्रतिकूल ? | ||
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| + | किसी प्रलोभन में पड़ अथवा गया कहीं था भूल ? | ||
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| + | अन्तरिक्ष में करता है तू क्यों अनवरत बिलाप ? | ||
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| + | ऐसी दारुण व्यथा तुझे क्या है किसका परिताप ? | ||
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| + | किसी गुप्त दुष्कृति की स्मृति क्या उठी हृदय में जाग | ||
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| + | जला रही है तुझको अथवा प्रिय वियोग की आग ? | ||
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| + | शून्य गगन में कौन सुनेगा तेरा विपुल विलाप ? | ||
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| + | बता कौन सी व्यथा तुझे है, है किसका परिताप ? | ||
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| + | यह ज्योत्सना रजनी हर सकती क्या तेरा न विषाद ? | ||
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| + | या तुझको निज-जन्म भूमी की सता रही है याद ? | ||
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| + | विमल व्योम में टँगे मनोहर मणियों के ये दीप | ||
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| + | इन्द्रजाल तू उन्हें समझ कर जाता है न समीप | ||
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| + | यह कैसा भय-मय विभ्रम है कैसा यह उन्माद ? | ||
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| + | नहीं ठहरता तू, आई क्या तुझे गेह की याद ? | ||
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| + | कितनी दूर कहाँ किस दिशि में तेरा नित्य निवास | ||
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| + | विहग विदेशी आने का क्यों किया यहाँ आयास | ||
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| + | वहाँ कौन नक्षत्र –वृन्द करता आलोक प्रदान ? | ||
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| + | गाती है तटिनी उस भू की बता कौन सा गान ? | ||
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| + | कैसा स्निग्ध्र समीरण चलता कैसी वहाँ सुवास | ||
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| + | किया यहाँ आने का तूने कैसे यह आयास ? | ||
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| + | (सरस्वती, जुलाई, 1920) | ||
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| + | कविता का नामः कुर्री के प्रति | ||
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| + | कविः प.(पद्मश्री)मुकुटधर पांडेय | ||
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| + | प्रस्तुतिः जयप्रकाश मानस | ||
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| + | टीपः कवि छायावाद कविता के जनक माने जाते हैं । स्वयं प्रसाद जी ने इन्हें छायवाद शब्द का प्रथम प्रयोक्ता माना था । | ||
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01:11, 15 अगस्त 2006 का अवतरण
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आर्य्य-भूमि
जहाँ हुए व्यास मुनि-प्रधान,
रामादि राजा अति कीर्तिमान।
जो थी जगत्पूजित धन्य-भूमि ,
वही हमारी यह आर्य्य- भूमि ।।
2
जहाँ हुए साधु हा महान्
थे लोग सारे धन-धर्म्मवान्।
जो थी जगत्पूजित धर्म्म-भूमि,
वही हमारी यह आर्य्य-भूमि।।
3
जहाँ सभी थे निज धर्म्म धारी,
स्वदेश का भी अभिमान भारी ।
जो थी जगत्पूजित पूज्य-भूमि,
वही हमारी यह आर्य्य-भूमि।।
4
हुए प्रजापाल नरेश नाना,
प्रजा जिन्होंने सुत-तुल्य जाना ।
जो थी जगत्पूजित सौख्य- भूमि ,
वही हमारी यह आर्य्य-भूमि।।
5
वीरांगना भारत-भामिली थीं,
वीरप्रसू भी कुल- कामिनी थीं ।
जो थ जगत्पूजित वीर- भूमि,
वही हमारी यह आर्य्य-भूमि।।
6
स्वदेश-सेवी जन लक्ष लक्ष,
हुए जहाँ हैं निज-कार्य्य दक्ष ।
जो थी जगत्पूजित कार्य्य-भूमि,
वही हमारी यह आर्य्य-भूमि।।
7
स्देश-कल्याण सुपुण्य जान,
जहाँ हुए यत्न सदा महान।
जो थी जगत्पूजित पुण्य भूमि,
वही हमारी यह आर्य्य-भूमि।।
8 न स्वार्थ का लेण जरा कहीं था,
देशार्थ का त्याग कहीं नहीं था।
जो थी जगत्पूजित श्रेष्ठ-भुमि,
वही हमारी यह आर्य्य-भूमि।।
9 कोई कभी धीर न छोड़ता था,
न मृत्यु से भी मुँह मोड़ता था।
जो थी जगत्पूजित धैर्य्य- भूमि,
वही हमारी यह आर्य्य-भूमि।।
10 स्वदेश के शत्रु स्वशत्रु माने,
जहाँ सभी ने शर-चाप ताने ।
जो थी जगत्पूजित शौर्य्य-भूमि,
वही हमारी यह आर्य्य-भूमि।।
11 अनेक थे वर्णे तथापि सारे
थे एकताबद्ध जहाँ हमारे
जो थी जगत्पूजित ऐक्य-भूमि,
वही हमारी यह आर्य भूमि ।।
12 थी मातृभूमि-व्रत-भक्ति भारी,
जहां हुए शुर यशोधिकारी ।
जो थी जगत्पूजित कीर्ति-भूमि,
वही हमारी यह आर्यभूमि ।।
13
दिव्यास्त्र विद्या बल, दिव्य यान,
छाया जहाँ था अति दिव्य ज्ञान ।
जो थी जगत्पूजित दिव्यभूमि,
वही हमारी यह आर्यभूमि ।।
14
नये नये देश जहाँ अनेक,
जीत गये थे नित एक एक ।
जो थी जगत्पूजित भाग्यभूमि,
वही हमारी यह आर्यभूमि ।।
15
विचार एसे जब चित्त आते,
विषाद पैदा करते, सताते ।
न क्या कभी देव दया करेंगे ?
न क्या हमारे दिन भी फिरेंगे ?
(अप्रैल, 1906 की सरस्वती में प्रकाशित )
कविता का नामः आर्यभूमि
कविः महावीर प्रसाद द्विवेदी
प्रस्तुतिः जयप्रकाश मानस
ग्राम्य जीवन
छोटे-छोटे भवन स्वच्छ अति दृष्टि मनोहर आते हैं
रत्न जटित प्रासादों से भी बढ़कर शोभा पाते हैं
बट-पीपल की शीतल छाया फैली कैसी चहुँ ओर है
द्विजगण सुन्दर गान सुनाते नृत्य कहीं दिखलाते मोर ।
शान्ति पूर्ण लघु ग्राम बड़ा ही सुखमय होता है भाई
देखो नगरों से भी बढ़कर इनकी शोभा अधिकाई
कपट द्वेष छलहीन यहाँ के रहने वाले चतुर किसान
दिवस विताते हैं प्रफुलित चित, करते अतिथि द्विजों का मान ।
आस-पास में है फुलवारी कहीं-कहीं पर बाग अनूप
केले नारंगी के तरुगण दिखालते हैं सुन्दर रूप
नूतन मीठे फल बागों से नित खाने को मिलते हैं ।
देने को फुलेस –सा सौरभ पुष्प यहाँ नित खिलते हैं।
पास जलाशय के खेतों में ईख खड़ी लहराती है
हरी भरी यह फसल धान की कृषकों के मन भाती है
खेतों में आते ये देखो हिरणों के बच्चे चुप-चाप
यहाँ नहीं हैं छली शिकारी धरते सुख से पदचाप
कभी-कभी कृषकों के बालक उन्हें पकड़ने जाते हैं
दौड़-दौड़ के थक जाते वे कहाँ पकड़ में आते हैं ।
बहता एक सुनिर्मल झरना कल-कल शब्द सुनाता है
मानों कृषकों को उन्नति के लिए मार्ग बतलाता है
गोधन चरते कैसे सुन्दर गल घंटी बजती सुख मूल
चरवाहे फिरते हैं सुख से देखो ये तटनी के फूल
ग्राम्य जनों को लभ्य सदा है सब प्रकार सुख शांति अपार
झंझट हीन बिताते जीवन करते दान धर्म सुखसार
कविता का नामः ग्राम्य जीवन
कविः प.(पद्मश्री)मुकुटधर पांडेय
प्रस्तुतिः जयप्रकाश मानस
टीपः कवि छायावाद कविता के जनक माने जाते हैं । स्वयं प्रसाद जी ने इन्हें छायवाद शब्द का प्रथम प्रयोक्ता माना था ।
कुररी के प्रति
बता मुझे ऐ विहग विदेशी अपने जी की बात
पिछड़ा था तू कहाँ, आ रहा जो कर इतनी रात
निद्रा में जा पड़े कभी के ग्राम-मनुज स्वच्न्द
अन्य विग भी निज़ नीड़ों में सोते हैं सानन्द
इस नीरव घटिका में उड़ता है तू चिन्तत गात
पिछड़ा था तू कहाँ, हुई क्यों तुझको इतनी रात ?
देख किसी माया प्रान्तर का चित्रित चारु दुकूल ?
क्या तेरा मन मोहजाल में गया कहीं था भूल ?
क्या उसका सौन्दर्य-सुरा से उठा हृदय तव ऊब ?
या आशा की मरीचिका से छला गया तू खूब ?
या होकर दिग्भ्रान्त लिया था तूने पथ प्रतिकूल ?
किसी प्रलोभन में पड़ अथवा गया कहीं था भूल ?
अन्तरिक्ष में करता है तू क्यों अनवरत बिलाप ?
ऐसी दारुण व्यथा तुझे क्या है किसका परिताप ?
किसी गुप्त दुष्कृति की स्मृति क्या उठी हृदय में जाग
जला रही है तुझको अथवा प्रिय वियोग की आग ?
शून्य गगन में कौन सुनेगा तेरा विपुल विलाप ?
बता कौन सी व्यथा तुझे है, है किसका परिताप ?
यह ज्योत्सना रजनी हर सकती क्या तेरा न विषाद ?
या तुझको निज-जन्म भूमी की सता रही है याद ?
विमल व्योम में टँगे मनोहर मणियों के ये दीप
इन्द्रजाल तू उन्हें समझ कर जाता है न समीप
यह कैसा भय-मय विभ्रम है कैसा यह उन्माद ?
नहीं ठहरता तू, आई क्या तुझे गेह की याद ?
कितनी दूर कहाँ किस दिशि में तेरा नित्य निवास
विहग विदेशी आने का क्यों किया यहाँ आयास
वहाँ कौन नक्षत्र –वृन्द करता आलोक प्रदान ?
गाती है तटिनी उस भू की बता कौन सा गान ?
कैसा स्निग्ध्र समीरण चलता कैसी वहाँ सुवास
किया यहाँ आने का तूने कैसे यह आयास ?
(सरस्वती, जुलाई, 1920)
कविता का नामः कुर्री के प्रति
कविः प.(पद्मश्री)मुकुटधर पांडेय
प्रस्तुतिः जयप्रकाश मानस
टीपः कवि छायावाद कविता के जनक माने जाते हैं । स्वयं प्रसाद जी ने इन्हें छायवाद शब्द का प्रथम प्रयोक्ता माना था ।
