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काहे को फिरत मन, करत बहु जतन , | काहे को फिरत मन, करत बहु जतन , | ||
मिटै न दुख बिमुख रघुकुल-बीर। | मिटै न दुख बिमुख रघुकुल-बीर। |
19:10, 28 अप्रैल 2011 के समय का अवतरण
पद संख्या 195 तथा 196
(195)
बलि जाउँ हौं राम गुसाईं।
कीजै कृपा आपनी नाई।1।
परमारथ, सुरपुर-साधन सब स्वारथ सुखद भलाई।
कलि सकोप लोपी सुचाल , निज कठिन कुचाल चलाई। 2।
जहँ जहँ चित चितवन हित, तहँ नित नव बिषाद अधिकाई ।
रूचि -भावती भभरि भागहि, समुहाहिं अमित अनभाई।3।
आधि -मगन मन, ब्याधि -बिकल तन, बचन मलीन झुठाई।
ऐतेहुँ पर तुमसों तुलसीकी प्रभु सकल सनेह सगाई।4।
(196)
काहे को फिरत मन, करत बहु जतन ,
मिटै न दुख बिमुख रघुकुल-बीर।
कीजै जो कोटि उपाइ, त्रिबिधि ताप न जाइ।
कह्यो जो भुज उठाय मुनिबर कीर।1।
सहज टेव बिसारि तुही धौं देखु बिचारि ,
मिलै न मथत बारि घृत बिनु छीर।
समुझि तजहिं भ्रम , भजहिं पद-जुगम,
सेवत सुगम, गुन गहन गँभीर।2।
आगम निगम ग्रंथ, रिषि -मुनि ,सुर -संत,
सब ही को एक मत सुनु, मतिधीर।
तुलसिदास प्रभु बिनु पियास मरै पसु ,
जद्यपि है निकट सरसरि-तीर।3।