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पद संख्या 233 तथा 234
(233)
मनोरथ मनको एकै भाँति।
चाहत मुनि-मन-अगम सुकृत -फल , मनसा अघ न अघाति।1।
करमभूमि कलि जनम, कुसंगति, मति बिमोह-मद-माति।
करत कुजोग कोटि , क्यों पैयत परमारथ-पद सांति।2।
सेइ साधु-गुरू , सुनि पुरान -श्रुति बूझ्यो राग बाजी ताँति।
तुलसी प्रभु सुभाउ सुरतरू -सो , ज्यों दरपन मुख-कांति।3।
(234)
जनम गयो बादिहिं बर बीति।
परमारथ पाले न पर्यो कछु, अनुदिन अधिक अनीति।1।
खेलत खात लरिकपन गो चलि, जौबन जुवतिन लियो जीति।
रोग-बियोग-सोग -श्रम-संकुल बड़ि बय बृथहि अतीति। 2।
राग-रोष-इरिषा-बिमोह-बस रूची न साधु-समीति।
कहे न सुने गुनगुन रघुबर के, भइ न रामपद-प्रीति।3।
हृदय दहत पछिताय-अनल अब , सुनत दुसह भवभीति ।
तुलसी प्रभु तें होइ सो कीजिय समुझि बिरदकी रीति।4।