भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"मंजिल / विश्वनाथप्रसाद तिवारी" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
 
पंक्ति 28: पंक्ति 28:
 
क्या करूँ मैं ?  
 
क्या करूँ मैं ?  
  
मेरी मंजिल दूर है, प्रभु  
+
मेरी मंज़िल दूर है, प्रभु  
 
मगर  
 
मगर  
क्या यह मेरी मंजिल नहीं ?
+
क्या यह मेरी मंज़िल नहीं ?
 
</poem>
 
</poem>

12:48, 3 अगस्त 2012 के समय का अवतरण

सूरज डूब रहा है
और अँधेरा घिरने वाला है

मेरे आगे जो रास्ता है
काँटे बिखरे हैं उस पर
क्या करूँ मैं ?

बचा कर निकल जाऊँ इन्हें, बगल से
या चला जाऊँ छलाँग, इनके पार
क्या करूँ मैं ?

शायद आख़िरी यात्री हूँ
आज की साँझ
संभव है कोई आ रहा हो
मेरे भी बाद
उसे दिखेंगे नहीं अँधेरे में, ये काँटे
क्या करूँ मैं ?

रुक जाऊँ काँटो के पहले
सचेत करने के लिए आने वालों को
या चुन कर हटा दूँ राह से इन्हें
क्या करूँ मैं ?

मेरी मंज़िल दूर है, प्रभु
मगर
क्या यह मेरी मंज़िल नहीं ?