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किसान (कविता) / मैथिलीशरण गुप्त
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05:51, 9 जुलाई 2013
खाते, खवाई, बीज ऋण से हैं रंगे रक्खे जहाँ
आता महाजन के यहाँ वह अन्न सारा अंत में
अधपेट खाकर फिर उन्हें है
कांपना
काँपना
हेमंत में
बरसा रहा है रवि अनल, भूतल तवा सा जल रहा
Sharda suman
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