भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"इक रोज़ बिछड़ जायेंगे दिन सूरजों वाले / 'महताब' हैदर नक़वी" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार='महताब' हैदर नक़वी }} {{KKCatGhazal}} <poem> इक रो...' के साथ नया पन्ना बनाया)
 
 
पंक्ति 14: पंक्ति 14:
 
किस सम्त गये क़ाफ़िले परछाइयों वाले
 
किस सम्त गये क़ाफ़िले परछाइयों वाले
  
ये आँख मेरि हो गयी मानूस जहाँ से
+
ये आँख मेरी हो गयी मानूस जहाँ से
 
या खो गये मंज़र सभी वो हैरतों वाले
 
या खो गये मंज़र सभी वो हैरतों वाले
  

18:05, 23 जुलाई 2013 के समय का अवतरण

इक रोज़ बिछड़ जायेंगे दिन सूरजों वाले
फिर दिन न कभी आयेंगे दिन ख़ुशफ़हमियों वाले

इन प्यासी ज़मीनों की तमन्नाएँ सिवा हैं
तुम कौन से इस शहर में हो वहशतों वाले

तनहाई मिरी पूछती है मुझसे कि ऐ दोस्त
किस सम्त गये क़ाफ़िले परछाइयों वाले

ये आँख मेरी हो गयी मानूस जहाँ से
या खो गये मंज़र सभी वो हैरतों वाले

मैं अपनी तमन्नाओं के नरग़े से घिरा हूँ
दे रास्ता मुझको भी कोई रास्तों वाले