"कहाँ पहुँचे सुहाने मंज़रों तक / द्विजेन्द्र 'द्विज'" के अवतरणों में अंतर
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वो जिनका ध्यान था टूटे परों तक | वो जिनका ध्यान था टूटे परों तक | ||
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जिन्हें हर हाल में सच बोलना था | जिन्हें हर हाल में सच बोलना था | ||
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पहुँचना था उन्हीं को कटघरों तक | पहुँचना था उन्हीं को कटघरों तक | ||
− | + | लकीरों को बताकर साँप अकसर | |
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धकेला उसने हमको अजगरों तक | धकेला उसने हमको अजगरों तक | ||
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नज़र अंदाज़ चिंगारी हुई थी | नज़र अंदाज़ चिंगारी हुई थी | ||
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सुलगकर आग फैली है घरों तक | सुलगकर आग फैली है घरों तक | ||
− | + | ये कौन आया हमारी गुफ़्तगू में | |
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दिलों की बात पहुँची नश्तरों तक | दिलों की बात पहुँची नश्तरों तक | ||
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उसे ही नाख़ुदा कहते रहे हम | उसे ही नाख़ुदा कहते रहे हम | ||
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हमें लाता रहा जो गह्वरों तक | हमें लाता रहा जो गह्वरों तक | ||
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ज़रा तैरो, बचा लो ख़ुद को , देखो | ज़रा तैरो, बचा लो ख़ुद को , देखो | ||
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लो पानी आ गया अब तो सरों तक | लो पानी आ गया अब तो सरों तक | ||
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सलीक़ा था कहाँ उसमें जो बिकता | सलीक़ा था कहाँ उसमें जो बिकता | ||
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सुख़न पहुँचा नहीं सौदागरों तक | सुख़न पहुँचा नहीं सौदागरों तक | ||
− | + | निशाँ तहज़ीब के मिलते यक़ीनन | |
− | निशाँ | + | |
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कोई आता अगर इन खण्डरों तक | कोई आता अगर इन खण्डरों तक | ||
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नहीं अब ज़िन्दगी मक़सद जब उसका | नहीं अब ज़िन्दगी मक़सद जब उसका | ||
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तो महज़ब लाएगा ही मक़बरों तक | तो महज़ब लाएगा ही मक़बरों तक | ||
− | + | निचुड़ना था किनारों को हमेशा | |
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नदी को भागना था सागरों तक | नदी को भागना था सागरों तक | ||
− | + | बचीं तो कल्पना बनकर उड़ेंगी | |
− | बचीं तो कल्पना | + | |
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अजन्मी बेटियाँ भी अम्बरों तक | अजन्मी बेटियाँ भी अम्बरों तक | ||
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अक़ीदत ही नहीं जब तौर ‘द्विज’ का | अक़ीदत ही नहीं जब तौर ‘द्विज’ का | ||
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पहुँचता वो कहाँ पैग़म्बरों तक | पहुँचता वो कहाँ पैग़म्बरों तक |
11:06, 29 जुलाई 2013 के समय का अवतरण
कहाँ पहुँचे सुहाने मंज़रों तक
वो जिनका ध्यान था टूटे परों तक
जिन्हें हर हाल में सच बोलना था
पहुँचना था उन्हीं को कटघरों तक
लकीरों को बताकर साँप अकसर
धकेला उसने हमको अजगरों तक
नज़र अंदाज़ चिंगारी हुई थी
सुलगकर आग फैली है घरों तक
ये कौन आया हमारी गुफ़्तगू में
दिलों की बात पहुँची नश्तरों तक
उसे ही नाख़ुदा कहते रहे हम
हमें लाता रहा जो गह्वरों तक
ज़रा तैरो, बचा लो ख़ुद को , देखो
लो पानी आ गया अब तो सरों तक
सलीक़ा था कहाँ उसमें जो बिकता
सुख़न पहुँचा नहीं सौदागरों तक
निशाँ तहज़ीब के मिलते यक़ीनन
कोई आता अगर इन खण्डरों तक
नहीं अब ज़िन्दगी मक़सद जब उसका
तो महज़ब लाएगा ही मक़बरों तक
निचुड़ना था किनारों को हमेशा
नदी को भागना था सागरों तक
बचीं तो कल्पना बनकर उड़ेंगी
अजन्मी बेटियाँ भी अम्बरों तक
अक़ीदत ही नहीं जब तौर ‘द्विज’ का
पहुँचता वो कहाँ पैग़म्बरों तक