"असमंजस / शिवमंगल सिंह ‘सुमन’" के अवतरणों में अंतर
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| + | पथ निर्जन है, एकाकी है, | ||
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| + | सामने प्रलय की झाँकी है | ||
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| + | स्मृति में कुछ बेसुध-सी कम्पन | ||
| + | पग अस्थिर है, मन चंचल है | ||
| − | + | यौवन में मधुर उमंगें हैं | |
| − | + | कुछ बचपन है, नादानी है | |
| − | + | मेरे रसहीन कपालो पर | |
| − | + | कुछ-कुछ पीडा का पानी है | |
| − | + | आंखों में अमर-प्रतीक्षा ही | |
| − | + | बस एक मात्र मेरा धन है | |
| − | + | मेरी श्वासों, निःश्वासों में | |
| − | + | आशा का चिर आश्वासन है | |
| − | + | मेरी सूनी डाली पर खग | |
| − | + | कर चुके बंद करना कलरव | |
| − | + | जाने क्यों मुझसे रूठ गया | |
| − | + | मेरा वह दो दिन का वैभव | |
| − | + | कुछ-कुछ धुँधला सा है अतीत | |
| − | + | भावी है व्यापक अन्धकार | |
| − | + | उस पार कहां? वह तो केवल | |
| − | + | मन बहलाने का है विचार | |
| − | + | आगे, पीछे, दायें, बायें | |
| − | + | जल रही भूख की ज्वाला यहाँ | |
| − | + | तुम एक ओर, दूसरी ओर | |
| − | + | चलते फिरते कंकाल यहाँ | |
| − | + | इस ओर रूप की ज्वाला में | |
| − | + | जलते अनगिनत पतंगे हैं | |
| − | उस  | + | उस ओर पेट की ज्वाला से | 
| − | + | कितने नंगे भिखमंगे हैं | |
| − | + | इस ओर सजा मधु-मदिरालय | |
| − | + | हैं रास-रंग के साज कहीं | |
| − | + | उस ओर असंख्य अभागे हैं | |
| − | + | दाने तक को मुहताज कहीं | |
| − | इस ओर  | + | इस ओर अतृप्ति कनखियों से | 
| − | + | सालस है मुझे निहार रही | |
| − | उस ओर  | + | उस ओर साधना पथ पर | 
| − | + | मानवता मुझे पुकार रही | |
| − | + | तुमको पाने की आकांक्षा | |
| − | + | उनसे मिल मिटने में सुख है | |
| − | + | किसको खोजूँ, किसको पाऊँ | |
| − | + | असमंजस है, दुस्सह दुख है | |
| − | + | बन-बनकर मिटना ही होगा | |
| − | + | जब कण-कण में परिवर्तन है | |
| − | + | संभव हो यहां मिलन कैसे | |
| − | + | जीवन तो आत्म-विसर्जन है | |
| − | + | सत्वर समाधि की शय्या पर | |
| − | + | अपना चिर-मिलन मिला लूँगा | |
| − | + | जिनका कोई भी आज नहीं | |
| − | + | मिटकर उनको अपना लूँगा। | |
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| − | सत्वर समाधि की शय्या पर | + | |
| − | अपना चिर-मिलन मिला लूँगा | + | |
| − | जिनका कोई भी आज नहीं | + | |
| − | मिटकर उनको अपना  | + | |
09:33, 5 अगस्त 2013 के समय का अवतरण
जीवन में कितना सूनापन
पथ निर्जन है, एकाकी है,
उर में मिटने का आयोजन
सामने प्रलय की झाँकी है
वाणी में है विषाद के कण
प्राणों में कुछ कौतूहल है
स्मृति में कुछ बेसुध-सी कम्पन
पग अस्थिर है, मन चंचल है
यौवन में मधुर उमंगें हैं
कुछ बचपन है, नादानी है
मेरे रसहीन कपालो पर
कुछ-कुछ पीडा का पानी है
आंखों में अमर-प्रतीक्षा ही
बस एक मात्र मेरा धन है
मेरी श्वासों, निःश्वासों में
आशा का चिर आश्वासन है
मेरी सूनी डाली पर खग
कर चुके बंद करना कलरव
जाने क्यों मुझसे रूठ गया
मेरा वह दो दिन का वैभव
कुछ-कुछ धुँधला सा है अतीत
भावी है व्यापक अन्धकार
उस पार कहां? वह तो केवल
मन बहलाने का है विचार
आगे, पीछे, दायें, बायें
जल रही भूख की ज्वाला यहाँ
तुम एक ओर, दूसरी ओर
चलते फिरते कंकाल यहाँ
इस ओर रूप की ज्वाला में
जलते अनगिनत पतंगे हैं
उस ओर पेट की ज्वाला से
कितने नंगे भिखमंगे हैं
इस ओर सजा मधु-मदिरालय
हैं रास-रंग के साज कहीं
उस ओर असंख्य अभागे हैं
दाने तक को मुहताज कहीं
इस ओर अतृप्ति कनखियों से
सालस है मुझे निहार रही
उस ओर साधना पथ पर
मानवता मुझे पुकार रही
तुमको पाने की आकांक्षा
उनसे मिल मिटने में सुख है
किसको खोजूँ, किसको पाऊँ
असमंजस है, दुस्सह दुख है
बन-बनकर मिटना ही होगा
जब कण-कण में परिवर्तन है
संभव हो यहां मिलन कैसे
जीवन तो आत्म-विसर्जन है
सत्वर समाधि की शय्या पर
अपना चिर-मिलन मिला लूँगा
जिनका कोई भी आज नहीं
मिटकर उनको अपना लूँगा।
 
	
	

