भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"ढ़हते दरख्त / रति सक्सेना" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
 
पंक्ति 3: पंक्ति 3:
 
|रचनाकार=रति सक्सेना
 
|रचनाकार=रति सक्सेना
 
}}
 
}}
 
+
{{KKCatKavita}}
दरख्तों को ढहना पसन्द नहीं<br>
+
<poem>
वे उठते हैं ऊँचे फैलाव के साथ<br>
+
दरख्तों को ढहना पसन्द नहीं
वे फैलते हैं पूरे फैलाव में<br>
+
वे उठते हैं ऊँचे फैलाव के साथ
वे पाँव पसारते हैं पूरी जमीन में<br>
+
वे फैलते हैं पूरे फैलाव में
भरपूर ज़मीन, भरपूर आसमान<br>
+
वे पाँव पसारते हैं पूरी जमीन में
भरपूर आसपास, पूरी तरह भरपूर<br>
+
भरपूर ज़मीन, भरपूर आसमान
जब कभी ज़मीन करवट लेती है<br>
+
भरपूर आसपास, पूरी तरह भरपूर
आसमान आखिरी बूंद तक पिघल जाता है<br>
+
जब कभी ज़मीन करवट लेती है
आसपास बैगाना बन जाता है<br>
+
आसमान आखिरी बूंद तक पिघल जाता है
दरख्तों को ढहना पड़ता है<br>
+
आसपास बैगाना बन जाता है
ढहने से पहले वे<br>
+
दरख्तों को ढहना पड़ता है
पखेरुओं को आशीष देते हैं<br>
+
ढहने से पहले वे
लताओँ से विदा कहते हैं<br>
+
पखेरुओं को आशीष देते हैं
पत्तियों को झड़ जाने देतें हैं<br>
+
लताओँ से विदा कहते हैं
जडों में बिल बनाए साँपों का सिर<br>
+
पत्तियों को झड़ जाने देतें हैं
हौले से सहला देते हैं<br>
+
जडों में बिल बनाए साँपों का सिर
मौन धमाके से<br>
+
हौले से सहला देते हैं
वर्तमान को थर्राते हुए<br>
+
मौन धमाके से
मुट्ठी भर माटी हाथ में लिए<br>
+
वर्तमान को थर्राते हुए
 +
मुट्ठी भर माटी हाथ में लिए
 
ढह जाते हैं भविष्य में
 
ढह जाते हैं भविष्य में
 +
</poem>

17:38, 29 अगस्त 2013 के समय का अवतरण

दरख्तों को ढहना पसन्द नहीं
वे उठते हैं ऊँचे फैलाव के साथ
वे फैलते हैं पूरे फैलाव में
वे पाँव पसारते हैं पूरी जमीन में
भरपूर ज़मीन, भरपूर आसमान
भरपूर आसपास, पूरी तरह भरपूर
जब कभी ज़मीन करवट लेती है
आसमान आखिरी बूंद तक पिघल जाता है
आसपास बैगाना बन जाता है
दरख्तों को ढहना पड़ता है
ढहने से पहले वे
पखेरुओं को आशीष देते हैं
लताओँ से विदा कहते हैं
पत्तियों को झड़ जाने देतें हैं
जडों में बिल बनाए साँपों का सिर
हौले से सहला देते हैं
मौन धमाके से
वर्तमान को थर्राते हुए
मुट्ठी भर माटी हाथ में लिए
ढह जाते हैं भविष्य में