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+ | लिखि लिखि चिठिया नारद मुनि भेजे, विश्वामित्र पिठायो। | ||
+ | साजि बरात चले राजा दशरथ, | ||
+ | जनकपुरी चलि आयो, राम वर पायो। | ||
+ | वनविरदा से बांस मंगायो, आनन माड़ो छवायो। | ||
+ | कंचन कलस धरतऽ बेदिअन परऽ, | ||
+ | जहाँ मानिक दीप जराए, राम वर पाए। | ||
+ | भए व्याह देव सब हरषत, सखि सब मंगल गाए, | ||
+ | राजा दशरथ द्रव्य लुटाए, राम वर पाए। | ||
+ | धनि -धनि ए सिया रउरी भाग, राम वर पायो। | ||
− | + | '''२.''' | |
− | + | बारहमासा | |
− | + | शुभ कातिक सिर विचारी, तजो वनवारी। | |
− | + | जेठ मास तन तप्त अंग भावे नहीं सारी, तजो वनवारी। | |
− | + | बाढ़े विरह अषाढ़ देत अद्रा झंकारी, तजो वनवारी। | |
− | + | सावन सेज भयावन लागतऽ, | |
− | + | पिरतम बिनु बुन्द कटारी, तजो वनवारी। | |
− | + | भादो गगन गंभीर पीर अति हृदय मंझारी, | |
− | + | करि के क्वार करार सौत संग फंसे मुरारी, तजो वनवारी। | |
− | + | कातिव रास रचे मनमोहन, | |
− | + | द्विज पाव में पायल भारी, तजो वनवारी। | |
− | + | अगहन अपित अनेक विकल वृषभानु दुलारी, | |
− | '''२.''' | + | पूस लगे तन जाड़ देत कुबजा को गारी। |
− | बारहमासा | + | आवत माघ बसंत जनावत, झूमर चौतार झमारी, तजो वनवारी। |
− | शुभ कातिक सिर विचारी, तजो वनवारी। | + | फागुन उड़त गुलाब अर्गला कुमकुम जारी, |
− | जेठ मास तन तप्त अंग भावे नहीं सारी, तजो वनवारी। | + | नहिं भावत बिनु कंत चैत विरहा जल जारी, |
− | बाढ़े विरह अषाढ़ देत अद्रा झंकारी, तजो वनवारी। | + | दिन छुटकन वैसाख जनावत, ऐसे काम न करहु विहारी, तजो वनवारी। |
− | सावन सेज भयावन लागतऽ, | + | </poem> |
− | पिरतम बिनु बुन्द कटारी, तजो वनवारी। | + | |
− | भादो गगन गंभीर पीर अति हृदय मंझारी, | + | |
− | करि के क्वार करार सौत संग फंसे मुरारी, तजो वनवारी। | + | |
− | कातिव रास रचे मनमोहन, | + | |
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− | अगहन अपित अनेक विकल वृषभानु दुलारी, | + | |
− | पूस लगे तन जाड़ देत कुबजा को गारी। | + | |
− | आवत माघ बसंत जनावत, झूमर चौतार झमारी, तजो वनवारी। | + | |
− | फागुन उड़त गुलाब अर्गला कुमकुम जारी, | + | |
− | नहिं भावत बिनु कंत चैत विरहा जल जारी, | + | |
− | दिन छुटकन वैसाख जनावत, ऐसे काम न करहु विहारी, तजो वनवारी। < | + |
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- हिमाचली लोकगीत
१.
धनि-धनि ए सिया रउरी भाग, राम वर पायो।
लिखि लिखि चिठिया नारद मुनि भेजे, विश्वामित्र पिठायो।
साजि बरात चले राजा दशरथ,
जनकपुरी चलि आयो, राम वर पायो।
वनविरदा से बांस मंगायो, आनन माड़ो छवायो।
कंचन कलस धरतऽ बेदिअन परऽ,
जहाँ मानिक दीप जराए, राम वर पाए।
भए व्याह देव सब हरषत, सखि सब मंगल गाए,
राजा दशरथ द्रव्य लुटाए, राम वर पाए।
धनि -धनि ए सिया रउरी भाग, राम वर पायो।
२.
बारहमासा
शुभ कातिक सिर विचारी, तजो वनवारी।
जेठ मास तन तप्त अंग भावे नहीं सारी, तजो वनवारी।
बाढ़े विरह अषाढ़ देत अद्रा झंकारी, तजो वनवारी।
सावन सेज भयावन लागतऽ,
पिरतम बिनु बुन्द कटारी, तजो वनवारी।
भादो गगन गंभीर पीर अति हृदय मंझारी,
करि के क्वार करार सौत संग फंसे मुरारी, तजो वनवारी।
कातिव रास रचे मनमोहन,
द्विज पाव में पायल भारी, तजो वनवारी।
अगहन अपित अनेक विकल वृषभानु दुलारी,
पूस लगे तन जाड़ देत कुबजा को गारी।
आवत माघ बसंत जनावत, झूमर चौतार झमारी, तजो वनवारी।
फागुन उड़त गुलाब अर्गला कुमकुम जारी,
नहिं भावत बिनु कंत चैत विरहा जल जारी,
दिन छुटकन वैसाख जनावत, ऐसे काम न करहु विहारी, तजो वनवारी।