भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"लुकमींचणी - एक / मदन गोपाल लढ़ा" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) |
Sharda suman (चर्चा | योगदान) |
||
पंक्ति 4: | पंक्ति 4: | ||
|संग्रह=म्हारै पांती री चिंतावां / मदन गोपाल लढ़ा | |संग्रह=म्हारै पांती री चिंतावां / मदन गोपाल लढ़ा | ||
}} | }} | ||
− | + | {{KKCatRajasthaniRachna}} | |
{{KKCatKavita}} | {{KKCatKavita}} | ||
<Poem> | <Poem> |
23:01, 16 अक्टूबर 2013 के समय का अवतरण
अबै कोनी रमां
थारै भेळै
लुकमींचणी
खेल नै खेल कठै समझै थूं।
बता तो सरी
हरेक बारर
पैलपोत कींकर हुवै
म्हारी डांई ?
पूज‘र देखां तो
हुय सकै
हथेळी रो ऊंधो पासो आयां
म्हैं भिड़ता ई टळ जावूं
अर थारै पांती आवै
पैलड़ी डांई।
लुकणै खातर
बास री मरजाद ई
कठै मानै थूं
म्हैं सोधतो रैवूं
बास रै खुणां-खचूणां
थूं बजारिया करतो फिरै
गांव-गुवाड़।
होळै-सुस्ते
अचाणचकै
म्हारै मगरां
थप्पी मार परो
थूं एकर भळै लिख देवै
म्हारै नांव
एक बीजी डांई।