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"चीख उठा भगवान / श्यामनन्दन किशोर" के अवतरणों में अंतर

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चीख उठा मन्दिर की कारा से बन्दी भगवान-
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पूजित होने दो पत्थर की जगह नया इन्सान,
  
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जगत का होने दो कल्याण।
  
चीख उठा मन्दिर की कारा से बन्दी भगवान-<br>
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मुक्त करो, अभियुक्त न हूँ, इन काली दीवारों से
पूजित होने दो पत्थर की जगह नया इन्सान,<br><br>
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और न अब गुमराह करो तुम श्रद्धा से, प्यारों से
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ओ मंदिर-मस्जिद के तक्षक, ठेकेदार धरम के
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करो स्वर्ग की पापभूमि पर मिट्टी का आह्वान,
  
जगत का होने दो कल्याण ।<br><br>
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जगत का होने दो कल्याण।
  
मुक्त करो, अभियुक्त हूँ, इन काली दीवारों से<br>
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मुझ पर नये सिंगार, न ढँक पाती जब मनु की लाज
और न अब गुमराह करो तुम श्रद्धा से, प्यारों से<br>
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मुझको भोग हज़ार, क्षुधा से मरता रहा समाज
ओ मंदिर-मस्जिद के तक्षक, ठेकेदार धरम के<br>
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बन्द करो, अब सहा न जाता मुझसे अत्याचार
करो स्वर्ग की पापभूमि पर मिट्टी का आह्वान,<br><br>
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बन्द करो, अब पत्थर पर तुम फूलों का बलिदान,
  
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जगत का होने दो कल्याण।
  
मुझ पर नये सिंगार, न ढँक पाती जब मनु की लाज<br>
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मंदिर का आंगन है जमघट लोभी का, वंचक का
मुझको भोग हज़ार, क्षुधा से मरता रहा समाज<br>
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महा अस्त्र है धर्म बन गया अन्यायी, शोषक का
बन्द करो, अब सहा न जाता मुझसे अत्याचार<br>
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कब तक बेच कफन मानव का, मूर्ति सजाओगे तुम,
बन्द करो, अब पत्थर पर तुम फूलों का बलिदान,<br><br>
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कब तक चाँदी के टुकड़ों पर बेचोगे ईमान?
  
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जगत का होने दो कल्याण।
  
मंदिर का आंगन है जमघट लोभी का, वंचक का<br>
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एक नया इन्सान भेद की कारा जो तोड़ेगा-
महा अस्त्र है धर्म बन गया अन्यायी, शोषक का<br>
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जो मिट्टी की शुचि काया में ही देवेत्व भरेगा
कब तक बेच कफन मानव का, मूर्ति सजाओगे तुम,<br>
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ओ मेरे गुमनाम विधाता, ओ मानव संतान
कब तक चाँदी के टुकड़ों पर बेचोगे ईमान?<br><br>
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शिल्पकार अब बंद करो तुम प्रतिमा का निर्माण,
  
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एक नया इन्सान भेद की कारा जो तोड़ेगा-<br>
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जो मिट्टी की शुचि काया में ही देवेत्व भरेगा<br>
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ओ मेरे गुमनाम विधाता, ओ मानव संतान<br>
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शिल्पकार अब बंद करो तुम प्रतिमा का निर्माण,<br><br>
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14:07, 23 अक्टूबर 2013 के समय का अवतरण

चीख उठा मन्दिर की कारा से बन्दी भगवान-
पूजित होने दो पत्थर की जगह नया इन्सान,

जगत का होने दो कल्याण।

मुक्त करो, अभियुक्त न हूँ, इन काली दीवारों से
और न अब गुमराह करो तुम श्रद्धा से, प्यारों से
ओ मंदिर-मस्जिद के तक्षक, ठेकेदार धरम के
करो स्वर्ग की पापभूमि पर मिट्टी का आह्वान,

जगत का होने दो कल्याण।

मुझ पर नये सिंगार, न ढँक पाती जब मनु की लाज
मुझको भोग हज़ार, क्षुधा से मरता रहा समाज
बन्द करो, अब सहा न जाता मुझसे अत्याचार
बन्द करो, अब पत्थर पर तुम फूलों का बलिदान,

जगत का होने दो कल्याण।

मंदिर का आंगन है जमघट लोभी का, वंचक का
महा अस्त्र है धर्म बन गया अन्यायी, शोषक का
कब तक बेच कफन मानव का, मूर्ति सजाओगे तुम,
कब तक चाँदी के टुकड़ों पर बेचोगे ईमान?

जगत का होने दो कल्याण।

एक नया इन्सान भेद की कारा जो तोड़ेगा-
जो मिट्टी की शुचि काया में ही देवेत्व भरेगा
ओ मेरे गुमनाम विधाता, ओ मानव संतान
शिल्पकार अब बंद करो तुम प्रतिमा का निर्माण,

जगत का होने दो कल्याण।